मैं क्यूँ लिखती हूँ? आखिर जो भी कोई लिखता है वो क्यूँ लिखता है? किस्से, कहानियाँ,
विचार, आलोचना आदि आदि। क्या चलता है किसी
व्यक्ति के अंदर जो उसे कलम उठा कर कागज़ पर लिख देने की ज़रूरत महसूस होती है। शायद
हमारे भीतर कहने के लिए अथाह सागर है और उसे बोल के सिर्फ गिने चुने लोगों तक
पहुंचा के हमें तसल्ली नहीं होती। शायद मैंने भी इसीलिए लेखन आरंभ किया। जब आपको
सुनने के लिए उपयुक्त श्रोता ना हों तो पाठक बना लेने चाहिए। लिखते वक़्त हमारे मन
में यदि ये आ जाए कि इसे कोई पढ़ेगा भी या नहीं?
अगर पढ़ेंगे तो कितने लोग? कौन रुचि से पढ़ेगा? कौन अरुचि से बीच में ही आधा छोड़ देगा? कितने उत्साह बढ़ाएँगे या कौन आलोचना करेगा? तो शायद लेखक कभी लेखक बन ही ना पाये। लिखने वाला तो
बस बिना किसी अपेक्षा के लिख देना चाहता है। अपने मन में चल रहे प्रत्येक विचार को
कागज़ पर पलट देना चाहता है। इसीलिए शायद लिखते समय कोई भी इस पहलू पर विचार नहीं
करता कि जो वो लिख रहा है उसका समाज पर किस प्रकार से प्रभाव पड़ेगा? क्या उसकी विचारधारा,
उसके शब्द वो जिन लोगों तक पहुंचा रहा है वो उसे उसी प्रकार जज़्ब करेंगे या फिर वो
उसके लिए तैयार है भी या नहीं।
लिखने के लिए व्यक्ति को बहुत कुछ पढ़ना भी
पढ़ता है और आज के दौर में विरले ही कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है। देश के वर्तमान
राजनीतिक और सामाजिक माहौल पर गौर करें तो सब बस एक दूसरे को नफरत बांटने में लगे
हैं। चाहे वाणी से चाहे शब्दों से। चहुं ओर बस घृणा ही घृणा है। प्रिंट मीडिया के
जमाने से ऊपर उठ कर हम आज सोशल मीडिया के समंदर में तैर रहे हैं। जहां किताबें, उपन्यास, समाचार पत्र नहीं अब इंटरनेट पर e-books ओर e-articles का दौर है। मैं भी कागज़ कलम लेकर नहीं
बैठी बल्कि अपने कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अपनी उँगलियाँ चला रही हूँ और इसे ब्लॉग्स्पॉट
के माध्यम से e-article/blog के रूप में प्रकाशित करूंगी।
मैं यहाँ वर्तमान लेखकों की आलोचना नहीं
कर रही हूँ। ना ही सबको एक ही पलड़े में रख रही हूँ। पर हाँ, मैंने रोज़ बहुत कुछ अँग्रेजी और हिन्दी में पढ़ने के
बाद ये आभास किया है कि अधिकतर लोग अपने लेखन से अपनी विभिन्न कुंठाओं को न केवल व्यक्त
कर रहे हैं बल्कि पाठकों पर थोप रहे हैं। राजनीतिक कुंठा, धार्मिक कुंठा, राजनीतिक/धार्मिक अज्ञान, असभ्य भाषा और भारतीयता के विपरीत आचरण। ये सब पूरी
शिद्दत से बांटा जा रहा है। मैं लिखती हूँ क्यूंकी मेरे पास जो भी थोड़ा-बहुत ज्ञान
है उसे लोगों से बाँट सकूँ। मैं मेरे हृदय में बसी किसी भी प्रकार और किसी के लिए
भी घृणा या असंतोष को अपनी लेखनी से व्यक्त नहीं करती। क्यूंकी वो मेरी निजी सोच
या विचारधारा का प्रतिफल है और उसे लेखन के माध्यम से अन्य लोगों के मस्तिष्क में
ठूसना सरासर गलत है, नैतिकता ने नाते अपराध है।
एक समय था लेखन का अर्थ था सभ्य और सदी
हुई भाषा, सुंदर विचार, मोती की तरह गड़े हुए शब्द। अब जो भी पढ़िये आपको भाषा
की मर्यादा तो बिलकुल नहीं मिलेगी। गाली-गलौज,
असभ्य टीका-टिप्पणी सोशल मीडिया का नया ट्रेंड है। सबसे बड़ी समस्या है कि उच्च
स्तरीय शिक्षित व्यक्तियों को भी आलोचना और अपमान के बीच का भेद समझ नहीं आता।
नहीं समझ आता कि किसी की भी आलोचना करने के लिए शब्दकोश में शब्दों का कोई टोटा
नहीं है, बल्कि आपको असल में व्यक्ति को अपमानित
ही करना है। मैंने जब से लेखन आरंभ किया, जिस भी श्रेणी का हो, मैंने तय किया कि मैं अपने शब्दों से घृणा कभी नहीं
बाँटूँगी, मेरी भाषा का स्तर कभी नहीं गिरेगा। किसी
की आलोचना भी करनी हो तो मेरे शब्द अपनी मर्यादा कभी नहीं भूलेंगे। भारतीय
संस्कृति, सभ्यता,
संस्कार के नाम पर बहुत से बहुत कुछ कहते हैं। मेरा सिर्फ यही कहना है कि चाहे मेरी
वाणी हो चाहे मेरे शब्द मेरी भारतीयता सदा झलकती रहेगी और जिन्हें लगता है कि वो
अपने कुंठित विचारों को शब्दों में पिरो के समाज से बाँट कर समाज के प्रति कोई
योगदान दे रहे हैं तो उनके लिए ये समझने का समय है कि वो नींव डाल रहे हैं अपनी
आगे की पीढ़ी के लिए। जिसपे वो अपने भविष्य की इमारत खड़ी करेगी। अब निर्णय उनका है
कि वो इमारत प्रेम, सहृदयता,
समरसता और प्रसन्नता के ईंट गारे से बनी हो या फिर घृणा, द्वेष, मार-काट और रक्त के मिश्रण से।
सब जानते हैं कि केरल इस समय किस भयावह
आपदा से गुज़र रहा है। सिर्फ देशवासी ही नहीं विदेशों से भी सहायता के हांथ आगे बढ़े
हैं। इस समय जहां केरल वासियों को भारतियों की सहायता और प्रार्थना की अवश्यकता है
वहीं घृणा फैलाने वाले सहायता करने वालों से अधिक सक्रिय हैं। दिल टूट जाता है जब
पढ़ने को मिलता है कि “बीफ खाने वाले राज्य को सहायता मत दो, वो मरने के लायक हैं”।
ऐसे और बहुत सारे भद्दे वाक्य पढ़ें हैं मैंने। कैसे?
आखिर कैसे लिखने वाले ये सब लिख देते हैं? क्या हमारे अंदर का दर्द, मर्म सब मर गया है। अगर आप सहायता नहीं कर सकते तो इस
विपदा के समय तो कमसेकम नफरत का दौर मत चलाओ। सरकार का रुख भी केरल की तरफ बहुत गंभीर
नहीं दिखा अभी तक। खैर वर्तमान सरकार की प्राथमिकताएं वैसे भी ऊंची प्रतिमाओं, गौशालाओं, विदेश यात्राओं और पार्टी प्रचार तक सीमित
हैं। फिर भी मुझे पूरी आशा है कि केरल वासी शीघ्र ही इस परिस्थिति से उबरेंगे। हाँ!
ये कटु सत्य है कि उनको पुनर्स्थापित होने में बहुत समय, श्रम और धन लगेगा। मैं अपने लेख के माध्यम से भारतियों
से अपील करती हूँ कि जिससे जितना भी हो सके केरल के लिए दान करें और ना भी कर पाएँ
तो केरल के लिए प्रार्थना करें और नफरत के सौदागरों को आड़े हांथों लें।