सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

अवचेतन मन की शक्ति


भाग 2

डॉ. मर्फ़ी के अनुसार स्वस्थ रहना सामान्य बात है और अस्वस्थता असामान्य। इसी तरह धन की उपलब्धता सामान्य और अभाव असामान्य है। इस प्रकार की सभी बातें हमारे मस्तिष्क से जुड़ी हैं। हमारे मनोभावों से। हम अपनी परिस्थितियों में खुद को इतना समा लेते हैं कि अपने विचार और मनोभाव भी उसी रंग में रंग लेते हैं। जिस कारण हम अपने अवचेतन मन को लगातार अनुचित संदेश पहुँचाते रहते हैं। परिणामतः अस्वस्थता या धन अभाव और गहराता जाता है।

यकीन मानिए हमारे अवचेतन मन में कुछ इस प्रकार क्षमता है कि यदि आप चाहें तो अपनी प्रत्येक समस्या का समाधान स्वयं ही कर सकते हैं। करना बस इतना है कि अपने आपको सकारात्मक विचारों से ओत-प्रोत रखना है और अपने जीवन में खुशियों की कल्पना सदैव करते रहना है। जब भी आप सोने चलें तो बस अपने मन में उस बात की कल्पना कीजिये जो आप चाहते हैं, जैसे धन, स्वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता, शादी, किसी समस्या का समाधान या फिर कोई कठिन निर्णय। कल्पना कीजिये कि आपको वो मिल गया है जो आप चाहते हैं, और आप उसे पा कर अत्यंत प्रसन्न हैं। मान लीजिये आपको ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही और आप एक लंबे समय से कहीं बाहर घूमने जाना चाहते हैं। तो बस प्रत्येक रात्री आपको सोने से ठीक पहले अपने मन को शांत रखते हुए इस विचार को जीवंत करना है कि आप उस जगह घूम रहे हैं, अपने कपड़ों का रंग, मौसम, परिवार या किसी और का साथ, कोई खास स्थान, कोई रैस्टौरेंट, कोई झील, आपकी गाड़ी, ट्रेन या बस इत्यादि जो भी आपकी सुखद यात्रा से संबन्धित हो उसकी कल्पना प्रसन्नता के साथ कीजिये और प्रत्येक रात्री करते रहिए। हाँ! ये सही है कि आपका अन्तर्मन इस सब पर सरलता से आपको विश्वास नहीं करने देगा, पर आपको नकारात्मक विचारों से स्वयं को दूर रखते हुए अपनी इस कल्पना से प्रसन्नता हासिल करते रहनी है। जैसे ही आपका अवचेतन मन जो कभी सुप्तावस्था में नहीं जाता और सदैव कार्यरत रहता है, इस कल्पना को स्वीकार कर लेगा, आपकी इक्षा आपके समक्ष मूर्त रूप लेगी। (इन बातों को बेहतर समझने के लिए डॉ. जोसफ मर्फ़ी की किताब The Power of Subconscious Mind अवश्य पढ़ें।

अक्सर हमने देखा सुना है कि पवित्र तीर्थों या धार्मिक स्थानों पर मूर्ति को हांथ लगाने, जल में स्नान करने या किसी के स्पर्श मात्र से लोगों के रोग-दोष दूर हो जाते हैं। कई जगह मान्यताएं हैं कि वहाँ के पवित्र जल में स्नान से त्वचा रोग नष्ट होते हैं। मेहंदीपुर बालाजी जा कर भूत बाधा उतरती है। ख्वाजा सलीम चिश्ती की दरगाह पर हर मन्नत पूरी होती है। रमन रेती में कृष्ण भक्ति में गाए हुए भजन से कृष्ण सेवा का लाभ मिलता है। ऐसा बहुत कुछ है मात्र भारत में नहीं बल्कि पूरे संसार में। श्रद्धालुओं के अनेकानेक विश्वास मौजूद हैं और ये बहुत हद तक सही भी हैं। हर किसी ने देखा होगा कहीं ना कहीं कोई चमत्कार होते हुए। ये सब आपके अन्तर्मन या अवचेतन मन की शक्ति का नतीजा है। यदि आप किसी बेजान पत्थर को भी पूरे विश्वास से छू कर ये मान लें कि आपकी बीमारी दूर हो जाएगी तो ऐसा वाकई हो जाएगा। जब भी हम किसी धार्मिक स्थल पर जाते हैं तो हमारे मन में पहले से ही ये निश्चित होता है कि यहाँ के दर्शन करने से या कुंड में स्नान करने से हमारे रोग-दोष दूर हो जाएंगे और ऐसा होता भी है। पर यदि अगर आपका मन कह दे कि ये कुंड गंदा है और इसके पानी से आपके शरीर में खुजली फैल जाएगी तो यकीन मानिए उस कुंड में चाहे ऐसा कुछ हो या नहीं पर यदि आपने उस जल का स्पर्श भी किया तो आपके शरीर में अवश्य ही खुजली फैल जाएगी।
मैं यहाँ अपने दो निजी उदाहरण प्रस्तुत करती हूँ।

1. एक लंबे समय से मैं अस्वस्थ हूँ। सत्य ये है कि मुझे कोई बीमारी है ही नहीं। फिर भी छोटी-मोटी उदर समस्याएँ मुझे गाहे-बगाहे परेशान करती रहती हैं। जीवन में प्रत्येक प्रकार के परिवर्तन करने का प्रयास किया, इलाज लिया, यहाँ तक कि भोजन भी संतुलित और प्रतिबंधित हो गया। फिर भी परिणाम उचित नहीं। अब इसके पीछे सारा खेल मेरे मस्तिष्क का है और ये मैं स्वयं समझती हूँ। मैंने लगभग ये स्वीकार लिया था कि मैं बीमार हूँ, और मुझ पर कोई दवा असर नहीं करती, मेरे सारे प्रयास विफल होते हैं। मैं जब भी किसी नए मार्ग पर अग्रसरित होने का प्रयास करती हूँ, बीमारी मुझे घेर लेती है। संयोगवश मुझे डॉ. मर्फ़ी की ये किताब पढ़ने का अवसर मिला और ये भी संयोग है कि इसी विषय से संबन्धित कुछ वीडियोज़ मुझे यूट्यूब पर अचानक से ट्रेंड करते हुए मिले। जिनहोने मेरे विश्वास को सुद्रण किया और इस विषय को समझने का अवसर दिया। अभी कुछ ही दिन हुए हैं और मैंने अपने अन्तर्मन से केवल यही पुकार लगाना आरंभ किया है कि मैं पूर्णतः स्वस्थ हूँ। मुझे कोई शारीरिक और मानसिक समस्या नहीं है। मैं सेहत, और प्रसन्नता की कामना करती हूँ। पिछले 20 दिन में जो सुधार मैंने किसी भी इलाज से नहीं देखा वो मेरे अवचेतन मन की शक्ति ने कर दिखाया। अब दवाइयाँ भी जैसे असर कर रही हैं। मैं बेहतर और बेहतर महसूस करते हुए इस लेख का दूसरा भाग आप तक सफलता से पहुंचा पा रही हूँ।

2. ना जाने कितने लोग हरिद्वार जा कर हरि की पौड़ी पर गंगा स्नान करते हैं। श्रद्धा में भाव-विभोर हो उनके भिन्न-भिन्न विचार होते होंगे। कितना ठंडा और तेज़ बहाव है वहाँ का। हम भी गए थे बहुत साल पहले। मैं अपने और अपनी बुआ जी के परिवार के साथ थी। कुल-मिलकर 7 लोग। सभी ने शाम को गंगा स्नान किया। ऐसा अकल्पनीय, अवर्णणीय, अलौकिक आनंद की प्राप्ति हुई कि क्या कहूँ। पर मात्र 6 व्यक्तियों को। बची एक मेरी माँ, जो गंगा स्नान में बिलकुल रुचि नहीं रखती। उन्हें सबके साथ मजबूरी में स्नान करना पड़ा और चूंकि बार-बार इतनी दूर आना संभव नहीं होता तो इस कारण भी उन्होने ये क्रिया कर तो ली पर उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। अब ये शब्द क्रिया मैं इसीलिए प्रयोग कर रही हूँ क्यूंकी जहां बाकी सब के लिए गंगा स्नान एक आभास है मेरी माँ के लिए एक क्रिया है। कुछ ही देर में उनके सारे शरीर में खुजली फैल गयी और वो छटपटाने लगीं। जब तक धर्मशाला (जहां हम रुके थे) लौट कर उन्होने नल स्नान नहीं कर लिया उन्हें चैन नहीं पड़ा। ये सब उनके अवचेतन मन की करामात थी जो कह रहा था कि ये नहीं करना है और बेमन से किया तो उन्हें तकलीफ हुई और फिर मन ने कहा कि नल के जल दोबारा स्नान करने से खुजली से मुक्ति मिलेगी, वो उन्हें मिली।

ये बहुत छोटे और सामान्य उदाहरण हैं। पर मेरी मानिए तो इनका प्रयोग कर के देखिये। बस आपको इस बात का ध्यान रखना है कि आपका अन्तर्मन आपकी की हुई इक्षा को नकारे ना, या आपको ये आभास ना कराये कि जो आप सोच रहे हैं वो संभव है ही नहीं। इस नकारत्मकता से आपको स्वयं को बचाना होगा। अन्यथा परिणाम विपरीत होंगे। सकारात्मक हो कर अपने अवचेतन मन को प्रत्येक दिन अच्छे विचारों और सुखद आकांषाओं से पोषित कीजिये। आपकी इक्षायेँ भी पूर्ण होंगी और आप प्रसन्न भी रहेंगे। ईसा मसीह की कहानियों को पढ़ें तो आप जान पाएंगे कि कैसे उनके वस्त्र के स्पर्श मात्र से लोगों के गंभीर से गंभीर रोग दूर हो जाते थे। जबकि ईसा मसीह एक साधारण मनुष्य के रूप में अवतरित हुए थे, उनके पास कोई चमत्कारिक शक्ति नहीं थी। बस अपना या अपने वस्त्र का स्पर्श देने से पहले आगंतुक से एक ही प्रश्न करते थे “क्या तुम्हें विश्वास है कि मुझे छू कर तुम स्वस्थ हो जाओगे?” जवाब हाँ में ही होता था। इस प्रकार वो उस व्यक्ति के अंतर मन में ये निश्चित कर देते थे कि वो उस क्रिया से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करेगा।

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

अवचेतन मन की शक्ति


भाग 1

आज जिस विषय पर लिखने जा रही हूँ उस पर बहुत से विश्वास नहीं करेंगे या शायद स्वीकार ना कर पाएँ। पर फिर भी मैं आज बात करना चाहती हूँ हमारे अन्तर्मन या अन्तः चेतना के सामर्थ्य और शक्ति के विषय में। आज जिस युग में हम जी रहे हैं वो दौड़ भाग वाला युग है। प्रकृति से दूर, प्रदूषण से भरा हुआ। इसीलिए हम पर अधिकतर समय नकारात्मकता हावी रहती है। कार्यस्थल पर प्रमोशन की दौड़ में लगे रहते हैं तो सोशल मीडिया पर तर्क-वितर्क और कुतर्क करते हुए संवाद में विजय पाने की दौड़ में। जीवन एक ढर्रे में बंध गया है और इसके चलते सकारात्मक सोच और विचार हमसे कोसों दूर हो चले हैं।

वर्ष 2017 से मुझे किताबें पढ़ने का चस्का लगा। इससे पहले तक मेरे अंदर पढ़ने का शौक ना के बराबर था। कुछ चुनिन्दा लेखकों को ज़रूर पढ़ा था और बाकी साहित्य से स्नातक और परास्नातक की डिग्री की पढ़ाई में जो पढ़ना पढ़ा, बस वो ही मेरा ज्ञान था। सौभाग्य से मैंने पिछले डेढ़ वर्ष में जितनी भी पुस्तकें पढ़ीं वो एक से एक कीमती रत्न है। लेखनी आपके जीवन में किस प्रकार परिवर्तन ला सकती है इसे समझाया नहीं जा सकता केवल अनुभव कर के आभास किया जा सकता है। शुरुआत की थी मैंने एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. ब्रायन वीस के प्रथम पुस्तक, “मैनी लाइव्ज़ मैनी मास्टर्स” के साथ। डॉ. वीस मुख्यतः वशीकरण (hypnotism) और पूर्व जन्म की यात्रा (past live regression) से जुड़े अपने अनुभवों के विषय में लिखते हैं जो उन्हें अपने मरीजों के इलाज के दौरान प्राप्त हुए। इसके बाद मैंने उनकी सभी 6 किताबें पढ़ डालीं। उसी दौरान मेरे बड़े भाई साहब द्वारा मुझे महान संत श्री परमहंस योगानन्द जी महाराज की आत्मकथा उपहार के रूप में मिली और उसे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और अभी कुछ समय से मैं डॉ. जोसफ मर्फ़ी की किताब पावर ऑफ योर सबकोंशस माइंड” (Power of your Subconscious Mind) पढ़ रही हूँ। हालांकि इस अवधि में मैंने और भी कई किताबें पढ़ी पर इन्हीं तीन किताबों का वर्णन मैं इसलिए कर रही हूँ, क्यूंकी आज का विषय इन से ही संबन्धित है या इन किताबों में गहराई से समझाया गया है और इन्हें पढ़ कर अगर आप अपने जीवन में उतार सकें तो यकीन मानिए जीवन में कई सकारात्मक परिवर्तन हो सकते हैं।

क्या कभी आपके साथ ऐसा हुआ कि आप लगातार किसी अच्छे या बुरे विषय के बारे में सोच रहे हों और वो अदबदा के आपके सामने घट गया हो? अगर हुआ और नहीं भी हुआ तो मैं आपको बता दूँ कि ऐसा होना संभव है। संत श्री योगानन्द जी ने अरसे पहले अपनी आत्मकथा में विचारों की शक्ति के विषय में विस्तार से वर्णन किया है। उनके अनुसार हमारी सोच और विचारों में वो अदम्य शक्ति और सामर्थ्य है कि हम अपनी परिस्थितियों में परिवर्तन कर सकते हैं और वर्तमान परिस्थितियाँ हमारी विचारधारा या मानसिकता का ही परिणाम है। इसे समझने के लिए मैं योगानन्द जी की आत्मकथा का एक अंश प्रस्तुत करती हूँ:

ये संवाद योगानन्द जी और उनकी बड़ी बहन के बीच का है जब वो अपने पैर के फोड़े पर मरहम लगा रहीं थीं,
तुम निरोग हांथ पर मरहम क्यूँ लगा रहे हो?”
बात ऐसी है दीदी, मुझे लग रहा है कि कल मुझे यहाँ फोड़ा होने वाला है।
चल, झूठा कहीं का!”
दीदी, जब तक तुम कल सुबह क्या होता है यह देख नहीं लेतीं, तक तक मुझे झूठा नहीं कह सकतीं।
मैं अपनी इक्षाशक्ति के बल के साथ कहता हूँ कि कल मेरे हांथ पर इसी जगह एक काफी बड़ा फोड़ा निकल आएगा; और तुम्हारा फोड़ा सूज कर दुगना हो जाएगा।“

अगले दिन प्रातः अक्षरशः यही घटित हुआ। उस दिन योगानन्द जी कि पूज्य माता जी ने उन्हें भविष्य में कभी भी अपनी शब्द- शक्ति का हानी करने के लिए प्रयोग करने से मना किया। अब आप सोचेंगे कि मैं एक संत के विषय में चर्चा कर रही हूँ, आम मनुष्य के शब्दों या विचारों में इतनी प्रबलता कहाँ हो सकती है। बिलकुल हो सकती है क्यूंकी जिस घटना का मैंने वर्णन किया वो उस समय की है जब योगानन्द जी संत नहीं बने थे और वो एक छोटे बालक थे। अक्सर हमने प्रवचनों में भी ये अवश्य सुना होगा कि बोलने से पहले सौ बार सोचना चाहिए। अक्सर तब जब हम आवेश में अपने मुख से कुछ बुरा कहने वाले हों।

डॉ. ब्रायन वीस को पढ़िये तो उन्होने भी शब्द शक्ति और विचार शक्ति के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट किया है। अगर किसी व्यक्ति से कह दीजिये कि वो अगले दो दिनों हृदयाघात से मर जाएगा तो यकीन मानिए वो भले ही उस बात को दरकिनार कर के आगे बढ़ जाए पर उसके अन्तर्मन में वो बात घर गयी होगी और उसे कचोटती रहेगी। दोन दिन में वो स्वतः निढाल हो जाएगा और संभव है उसकी हृदयघात से मृत्यु भी हो जाए। उसकी मृत्यु का कारण वो व्यक्ति नहीं जिसने उससे ऐसा कहा बल्कि ये स्वयं होगा क्यूंकी उसके अन्तर्मन ने ये स्वीकार कर लिया और उसके शरीर में उसी प्रकार के परिवर्तन होने लगे जो उसे हृदयघात और मृत्यु तक ले गए।

डॉ. जोसफ मर्फ़ी अपनी किताब पावर ऑफ योर सबकोंशस माइंड” (Power of your Subconscious Mind) में बताते हैं कि सुझाव (suggestion) का अर्थ होता है अपने विचारों को किसी अन्य व्यक्ति के मस्तिष्क में डाल कर उसे उसकी सोच बना देना। ये एक तरह की मानसिक क्रिया है ना कि वैचारिक। अगर आपने हौलीवुड की फिल्म 'इनसेप्शन' (Inception) देखी हो तो इस बात को बेहतर समझ पाएंगे। डॉ. मर्फ़ी कहते हैं कि हमारा मस्तिष्क एक जहाज़ (ship) की तरह है और हम उसके कप्तान (captain) और हमारा अवचेतन मन (subconscious mind) उस जहाज़ के कार्यकर्ता (crew)। कर्मचारी कप्तान के निर्देशों का पालन करते हैं तभी जहाज़ ठीक प्रकार से कार्य करता है। अब निर्भर करता है कि कप्तान अपने कर्मचारियों को किस प्रकार के संदेश या निर्देश देता है। कप्तान अगर अनुचित या उलझाने वाले निर्देश कर्मचारियों तक भेजेगा तो जहाज़ की कार्यप्रणाली ठीक काम नहीं करेगी और वो डूब भी सकता है।

इसी प्रकार हम अपने अवचेतन मन तक जो भी संदेश, निर्देश या सुझाव पहुँचाते हैं वो उसी प्रकार कार्य करता है और हमारे सामने परिणाम आते हैं......

शेष अगले अंक में......

      

बुधवार, 22 अगस्त 2018

घृणा ना बांटो शब्दों से


मैं क्यूँ लिखती हूँ? आखिर जो भी कोई लिखता है वो क्यूँ लिखता है? किस्से, कहानियाँ, विचार, आलोचना आदि आदि। क्या चलता है किसी व्यक्ति के अंदर जो उसे कलम उठा कर कागज़ पर लिख देने की ज़रूरत महसूस होती है। शायद हमारे भीतर कहने के लिए अथाह सागर है और उसे बोल के सिर्फ गिने चुने लोगों तक पहुंचा के हमें तसल्ली नहीं होती। शायद मैंने भी इसीलिए लेखन आरंभ किया। जब आपको सुनने के लिए उपयुक्त श्रोता ना हों तो पाठक बना लेने चाहिए। लिखते वक़्त हमारे मन में यदि ये आ जाए कि इसे कोई पढ़ेगा भी या नहीं? अगर पढ़ेंगे तो कितने लोग? कौन रुचि से पढ़ेगा? कौन अरुचि से बीच में ही आधा छोड़ देगा? कितने उत्साह बढ़ाएँगे या कौन आलोचना करेगा? तो शायद लेखक कभी लेखक बन ही ना पाये। लिखने वाला तो बस बिना किसी अपेक्षा के लिख देना चाहता है। अपने मन में चल रहे प्रत्येक विचार को कागज़ पर पलट देना चाहता है। इसीलिए शायद लिखते समय कोई भी इस पहलू पर विचार नहीं करता कि जो वो लिख रहा है उसका समाज पर किस प्रकार से प्रभाव पड़ेगा? क्या उसकी विचारधारा, उसके शब्द वो जिन लोगों तक पहुंचा रहा है वो उसे उसी प्रकार जज़्ब करेंगे या फिर वो उसके लिए तैयार है भी या नहीं।

लिखने के लिए व्यक्ति को बहुत कुछ पढ़ना भी पढ़ता है और आज के दौर में विरले ही कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है। देश के वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक माहौल पर गौर करें तो सब बस एक दूसरे को नफरत बांटने में लगे हैं। चाहे वाणी से चाहे शब्दों से। चहुं ओर बस घृणा ही घृणा है। प्रिंट मीडिया के जमाने से ऊपर उठ कर हम आज सोशल मीडिया के समंदर में तैर रहे हैं। जहां किताबें, उपन्यास, समाचार पत्र नहीं अब इंटरनेट पर e-books ओर e-articles का दौर है। मैं भी कागज़ कलम लेकर नहीं बैठी बल्कि अपने कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अपनी उँगलियाँ चला रही हूँ और इसे ब्लॉग्स्पॉट के माध्यम से e-article/blog के रूप में प्रकाशित करूंगी।

मैं यहाँ वर्तमान लेखकों की आलोचना नहीं कर रही हूँ। ना ही सबको एक ही पलड़े में रख रही हूँ। पर हाँ, मैंने रोज़ बहुत कुछ अँग्रेजी और हिन्दी में पढ़ने के बाद ये आभास किया है कि अधिकतर लोग अपने लेखन से अपनी विभिन्न कुंठाओं को न केवल व्यक्त कर रहे हैं बल्कि पाठकों पर थोप रहे हैं। राजनीतिक कुंठा, धार्मिक कुंठा, राजनीतिक/धार्मिक अज्ञान, असभ्य भाषा और भारतीयता के विपरीत आचरण। ये सब पूरी शिद्दत से बांटा जा रहा है। मैं लिखती हूँ क्यूंकी मेरे पास जो भी थोड़ा-बहुत ज्ञान है उसे लोगों से बाँट सकूँ। मैं मेरे हृदय में बसी किसी भी प्रकार और किसी के लिए भी घृणा या असंतोष को अपनी लेखनी से व्यक्त नहीं करती। क्यूंकी वो मेरी निजी सोच या विचारधारा का प्रतिफल है और उसे लेखन के माध्यम से अन्य लोगों के मस्तिष्क में ठूसना सरासर गलत है, नैतिकता ने नाते अपराध है।

एक समय था लेखन का अर्थ था सभ्य और सदी हुई भाषा, सुंदर विचार, मोती की तरह गड़े हुए शब्द। अब जो भी पढ़िये आपको भाषा की मर्यादा तो बिलकुल नहीं मिलेगी। गाली-गलौज, असभ्य टीका-टिप्पणी सोशल मीडिया का नया ट्रेंड है। सबसे बड़ी समस्या है कि उच्च स्तरीय शिक्षित व्यक्तियों को भी आलोचना और अपमान के बीच का भेद समझ नहीं आता। नहीं समझ आता कि किसी की भी आलोचना करने के लिए शब्दकोश में शब्दों का कोई टोटा नहीं है, बल्कि आपको असल में व्यक्ति को अपमानित ही करना है। मैंने जब से लेखन आरंभ किया, जिस भी श्रेणी का हो, मैंने तय किया कि मैं अपने शब्दों से घृणा कभी नहीं बाँटूँगी, मेरी भाषा का स्तर कभी नहीं गिरेगा। किसी की आलोचना भी करनी हो तो मेरे शब्द अपनी मर्यादा कभी नहीं भूलेंगे। भारतीय संस्कृति, सभ्यता, संस्कार के नाम पर बहुत से बहुत कुछ कहते हैं। मेरा सिर्फ यही कहना है कि चाहे मेरी वाणी हो चाहे मेरे शब्द मेरी भारतीयता सदा झलकती रहेगी और जिन्हें लगता है कि वो अपने कुंठित विचारों को शब्दों में पिरो के समाज से बाँट कर समाज के प्रति कोई योगदान दे रहे हैं तो उनके लिए ये समझने का समय है कि वो नींव डाल रहे हैं अपनी आगे की पीढ़ी के लिए। जिसपे वो अपने भविष्य की इमारत खड़ी करेगी। अब निर्णय उनका है कि वो इमारत प्रेम, सहृदयता, समरसता और प्रसन्नता के ईंट गारे से बनी हो या फिर घृणा, द्वेष, मार-काट और रक्त के मिश्रण से।   

सब जानते हैं कि केरल इस समय किस भयावह आपदा से गुज़र रहा है। सिर्फ देशवासी ही नहीं विदेशों से भी सहायता के हांथ आगे बढ़े हैं। इस समय जहां केरल वासियों को भारतियों की सहायता और प्रार्थना की अवश्यकता है वहीं घृणा फैलाने वाले सहायता करने वालों से अधिक सक्रिय हैं। दिल टूट जाता है जब पढ़ने को मिलता है कि बीफ खाने वाले राज्य को सहायता मत दो, वो मरने के लायक हैं। ऐसे और बहुत सारे भद्दे वाक्य पढ़ें हैं मैंने। कैसे? आखिर कैसे लिखने वाले ये सब लिख देते हैं? क्या हमारे अंदर का दर्द, मर्म सब मर गया है। अगर आप सहायता नहीं कर सकते तो इस विपदा के समय तो कमसेकम नफरत का दौर मत चलाओ। सरकार का रुख भी केरल की तरफ बहुत गंभीर नहीं दिखा अभी तक। खैर वर्तमान सरकार की प्राथमिकताएं वैसे भी ऊंची प्रतिमाओं, गौशालाओं, विदेश यात्राओं और पार्टी प्रचार तक सीमित हैं। फिर भी मुझे पूरी आशा है कि केरल वासी शीघ्र ही इस परिस्थिति से उबरेंगे। हाँ! ये कटु सत्य है कि उनको पुनर्स्थापित होने में बहुत समय, श्रम और धन लगेगा। मैं अपने लेख के माध्यम से भारतियों से अपील करती हूँ कि जिससे जितना भी हो सके केरल के लिए दान करें और ना भी कर पाएँ तो केरल के लिए प्रार्थना करें और नफरत के सौदागरों को आड़े हांथों लें।   

अनुच्छेद 370 पर सरकार का ऐतिहासिक निर्णय- मेरे विचार

आवश्यक नहीं कि हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी ही जाए और कुछ लिखा-बोला ही जाए। पर बात जब कश्मीर कि आती है तो भारत का बच्चा-बच्चा बोलता है और ...