“बदन
पे जिस
के शराफ़त
का पैरहन
देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा
ख़रीदने
को जिसे
कम थी
दौलत-ए-दुनिया
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा
मुझे
मिला है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़्मी
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरण देखा
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरण देखा
बड़ा
न छोटा कोई फर्क बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा
ज़बाँ
है और बयां और उस का मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा
लुटेरे
डाकू भी अपने पे नाज़ करने लगे
उन्होने आज जो संतों का आचरन देखा
उन्होने आज जो संतों का आचरन देखा
जो
सादगी है कुहन में हमारे ऐ ‘नीरज’
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा”
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा”
ये बात उन दिनों की है जब घरों में कलर
टीवी होना रईसी की बात होती थी। टीवी चलाने के लिए छत पर एक बड़े से डंडे में
ऐंटीना बांधना पड़ता था और उस डंडे या बांस को कस कर छत के किसी खंबे से या तो
बांधना पड़ता था या सीमेंट से जाम करना पड़ता था। एंटीने की रौड के दो छेदों में में
टीवी का तार दांतों से छील कर बांधा करते थे और बाकी तार जाल या खिड़की के सहारे
नीचे फेका जाता था जिसका दूसरा सिरा टीवी तक पहुँच जाए, और फिर एक बार तार को छील कर उसके दो सिरे एडोप्टर के
पेंचों में बांध कर, पेंचकस से कस कर उसे टीवी के पीछे बने
सॉकेट में लगा दिया जाता था। उस समय टीवी भी गोल मटोल सा हुआ करता था। हमारे पास
था ‘अप्ट्रोन’।
“Whats on….. its
uptron” ऐसे ही विज्ञापन आता था
अप्ट्रोन का।
उस समय केवल दूरदर्शन आता था, मैं तो दूरदर्शन के सारे कार्यक्रम देख कर ही बड़ी हुई
हूँ। 'रामायण', 'महाभारत', 'जंगल बुक', 'शक्तिमान', 'छुट्टी-छुट्टी', 'चौराहा', 'हम लोग', 'बनेगी अपनी बात', 'देख-भाई-देख', 'पोटली वाले बाबा', 'कृषि दर्शन', 'चंद्रकांता', 'भूतनाथ', 'अलिफ लैला', 'तबस्सुम की बातचीत', 'कामिनी कौशल का पापिट शो', वगैहरा-वगैहरा। इसके साथ ही दूरदर्शन पर अक्सर आया
करते थे मुशायरे। हालांकि बचपन में कविता, शायरी इन सब की समझ कहाँ हुआ करती थी। पर
मेरी माँ को मुशायरे सुनने का बड़ा शौक था। उस दौरान जब चुनाव के बाद मतों की गिनती
हुआ करती थी तो रात भर टीवी पर लगातार फिल्में आती थीं और उनके बीच-बीच में मतों
की गणना की संख्या को बताया जाता था और नव वर्ष की पूर्वा संध्या पर भी गीत-संगीत
के बाद मुशायरे, हास्य-व्यंग, कविता पाठ ये सब प्रसारित होता था।
तभी परिचय हुआ था मेरा ‘गोपाल दास नीरज’ से। एक बेहद कमाल की बात है कि बड़े
होते-होते मुझे केवल दो ही शायर याद रह गए एक ‘नीरज’ और दूसरे ‘बशीर बद्र’।
उस समय बहुत छोटी थी। टीवी का चालू होना ही मनोरंजन था। चाहे कुछ भी प्रसारित हो
रहा हो। ऐसे ही माँ के शौक ने मुझे भी मुशायरों का शौकीन बना दिया। नीरज जी में कुछ
अनोखी बात थी। पता नहीं क्या पर कुछ तो अनोखा था। मुशायरे बहुत लंबे चला करते थे
और नीरज को सबसे आखिर में अपनी कविता/गीत पढ़ने को आमंत्रित किया जाता था। उसके पीछे
भी एक बड़ा कारण था कि उनकी वजह से लोग बंधे बैठे रहते थे। क्यूंकी नीरज को सुन
लिया तो फिर कुछ और सुनने का किसी का दिल नहीं करता था। टीवी पर भी प्रसारण देर
रात तक चलता और मेरी माँ जो बहुत जल्दी सो जाने की आदत रखती हैं वो देर रात तक
टीवी के सामने बैठी रहती थीं, कि कब नीरज आयें और अपना रचना सुनाएँ।
“स्वप्न
झरे फूल
से,
मीत
चुभे शूल
से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
और
हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया हम गुबार देखते रहे”
कारवां गुज़र गया हम गुबार देखते रहे”
ऐसे ही धीरे-धीरे नीरज की रचनाओं में रुचि
बढ़ती चली गयी। भला हो दूरदर्शन का कि उन्हें अक्सर सुनने और देखने का मौका मिल जाया
करता था। मुझे याद है कि उनकी रचना “कारवां गुज़र गया” की औडियो कैसेट के लिए मैंने
बाज़ार के बहुत चक्कर काटे थे। माँ की फरमाइश थी जो पूरी नहीं हो पा रही थी। उस समय
हम जालौन जिले के एक छोटे से शहर ‘उरई’ में रहा करते थे। वहाँ चीज़ें आसानी से नहीं
मिला करती थीं और मिली भी नहीं। फिर समय के साथ केसेट का चलन ही बंद हो गया।
फक्कड़ स्वभाव मस्त मौला नीरज ने हिन्दी साहित्य
को जो बेहतरीन योगदान दिया है वो अनमोल है। कहते हैं कि कलाकार वो भी कवि/लेखक बस अपने
रंग में रंगे रहने वाला व्यक्ति होता है। ऐसे ही थे नीरज। किसी से कुछ नहीं चाहिए, फकीर जैसा स्वभाव।
“हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे...ऐसी गंध बसी है मन में सारा
जग मधुबन लगता है.....इस द्वार क्यूँ न जाऊँ, उस द्वार क्यूँ न जाऊँ, घर पा गया तुम्हारा,
मैं घर बदल-बदल के बोल फकीरे सिवा नशे के अपना कौन सगा रे, जो सबका सिरहाना रे,
वो अपना पैताना रे....हर घाट जल पिया है, गागर बदल-बदल के।“
शराब के शौकीन और बिना पिये कविता ना पढ़ने
वाले नीरज अध्यात्मिकता से भी जुड़े हुए थे। अरविंद,
ओशो, आनंदमयी माँ, मेहरबाबा, प्रबोधानन्द, स्वामी श्याम, मुक्तानन्द आदि का सानिध्य पाने की बात को
नीरज ने सहर्ष स्वीकारा है। स्वयं को तपभ्रष्ट योगी कहते थे। कहते थे कि तन का रोगी
और मन का भोगी होने के बाद भी उनकी आत्मा योगी है।
‘गीत जो गाया नहीं’,
‘बच्चन यात्री अग्निपथ का, ‘बदर बरस गयो’, ‘नीरज रचनावली’, ‘वंशिवट सूना है’, ‘नीरज के प्रेमगीत’, ‘काव्यांजली’,
‘नीरज की गीतिकाएं’ इत्यादि हिन्दी और उर्दू में अनेकों रचनाएँ, कवितायें, गजलें,
शायरी नीरज हमारे लिए छोड़ कर 93 साल की उम्र में इस संसार से कल विदा हो गए।
“जितना
कम सामान
रहेगा उतना
सफर आसान
रहेगा
जितनी भारी गठरी होगी उतना तू हैरान रहेगा
जितनी भारी गठरी होगी उतना तू हैरान रहेगा
उस
से मिलना न-मुमकिन है जब तक खुद का ध्यान रहेगा
हांथ मिलें और दिल न मिलें ऐसे में नुकसान रहेगा
हांथ मिलें और दिल न मिलें ऐसे में नुकसान रहेगा
जब
तक मंदिर और मस्जिद है मुश्किल में इंसान रहेगा
'नीरज’ तू कल यहाँ न होगा उस का गीत विधान रहेगा”
'नीरज’ तू कल यहाँ न होगा उस का गीत विधान रहेगा”
Bahut sunder likha hai
जवाब देंहटाएंVo purana zamana aankho ke aage aa gaya.
Der tak jaag ke kavi sammelan me sirf Neeraj ji ke liye jaagna..
Mausi ke saath bhi dekha hai ...
Bahut khoob likha hai
शुक्रिया
हटाएंनीरज जी को श्रद्धा सुमन समर्पित करने का अनूठा प्रयास जो सफल रहा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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