बुधवार, 5 दिसंबर 2018

ज्ञान अंधकार में है...

इस बार लेख नहीं बस एक कविता वर्तमान परिपेक्ष्य को दर्शाती हुई....


ज्ञान अंधकार में है
अज्ञानता का है चरम
सत्य धूमिल हो रहा
असत्य का है चलन

तर्क का मूल्य हुआ है क्षीण
कुतर्कों का बढ़ा है दाम
सच तेरा मेरा में बंट गया
झूठ का हो रहा सम्मान

बढ़ रही है दूरी औचित्य से
भ्रम का माया जाल है
असभ्य सर्वथा उचित है
सभ्यों का बुरा हाल है

आलोचना-अपमान में बचा ना कोई भेद है
बुद्धिजीवी की चादर में हो रहे छेद हैं
दंभ-अहंकार बैठे हैं सिर पर चढ़े
इस टूटती-बिखरती सभ्यता का बहुत मुझे खेद है

क्या यही है कलियुग की अति?
क्या यही है मानवता का पतन?
क्या पहुँच रहा संसार अंत तक?
या बचा अब भी कोई जतन?



5 टिप्‍पणियां:

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