शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

क्या परवरिश में ही कमी है?


इस विषय पर लगभग 6 महीने पहले मैंने एक लिख लिखने का प्रयास किया था पर फिर उसे प्रकाशित नहीं किया। क्यूंकी मैं अपनी बात को ठीक से सही और सटीक शब्दों में लिख नहीं पायी थी। पर हाल ही में हुए हार्दिक पाण्ड्या विवाद ने मुझे इसे दोबारा लिखने के लिए प्रेरित किया।

क्रिकेट हमारे लिए भगवान है और क्रिकेटर हमारे लिए देवता। हम क्रिकेट और क्रिकेटरों की पूजा करते हैं। बात सिर्फ क्रिकेट की नहीं, कोई भी बड़ी हस्ती हो चाहे खेल दुनिया की हो, चाहे कोई फिल्मी सितारा, चाहे कोई राजनीतिज्ञ हो या फिर कोई महान लेखक। हम समाज में उनके द्वारा निभाए गए किरदारों से इतने प्रभावित रहते हैं कि उन्हें समाज में बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त हो जाता है और फिर हमें उनके चारित्रिक दोषों से कोई मतलब नहीं रहता। जिसके परिणाम स्वरूप वो इतने उच्च्श्रंखल हो जाते हैं कि उन्हें दुनिया और उसमें रहने वाले हम लोग कीड़े-मकौड़ों की तरह दिखने लगते हैं।

हाल ही में कॉफी विद कारण के एक एपिसोड में हार्दिक पाण्ड्या और के.एल.राहुल ने अपने चरित्र की इस उच्चश्रंखलता या कहना चाहिए अभिमान और असभ्यता का परिचय दिया। महिलाओं के प्रति हार्दिक पाण्ड्या के विचार और सोच ये प्रदर्शित करती है कि स्त्री उनके लिए मात्र एक उपभोग की वस्तु है, जिसका अपना तो कोई अस्तित्व है ही नहीं। उनका क्रिकेटर होना और उनका पुरुष होना ही उनके लिए टेलेंट की बात है जिसे वो स्त्रियों का भोग करने में उपयोग करते हैं और उनके इस टेलेंट से उनके माता-पिता भी प्रभावित रहते हैं और उनका उत्साहवर्धन करते हैं।

हार्दिक ने जिस प्रकार उंगली उठा-उठा कर उदहारण दिये कि वे लड़कियों को किसी क्लब या पार्टी में अंकित करते हुए अपने पिता के समक्ष अपने टेलेंट का प्रदर्शन करते हैं, उससे ये स्पष्ट होता है कि उनकी मानसिकता को यहाँ तक पहुंचाने में उनके माता-पिता और उनकी परवरिश का बड़ा हांथ है। सिर्फ इतना ही नहीं हार्दिक के पिता जब उनके बचाव में सामने आए तो उन्होने हार्दिक के इस व्यवहार और घृणित सोच को मनोरंजन का नाम दिया।

ज़ाहिर सी बात है कि भारत में बेटों की परवरिश वैसे नहीं होती जैसे बेटियों की होती है। माना कि बदलते परिवेश के साथ-साथ बेटियों की परवरिश में भी परिवर्तन आया है। उन्हें भी वो स्वतन्त्रता, सुविधाएं और शिक्षा प्राप्त कराई जाती है जो बेटों को मिलती है। पर बेटों को बड़ा करने के तरीके में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। बचपन से ही बेटों को क्यू बेटियों की तरह सबका सम्मान करना सिखाया नहीं जाता। केवल बड़ों के पैर छूना ही तो सब कुछ नहीं होता। हमेशा माँ-बहन का उदहारण देना क्यूँ ज़रूरी है? क्या केवल स्त्री शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक स्त्री को सम्मान देना और उसे अधिक नहीं बस इंसान समझना ही क्यूँ नहीं सिखाया जाता? स्त्री अब भी लोगों के मस्तिष्क में मांस का लोथड़ा ही क्यूँ है? जिस प्रकार बेटी के बड़े होते ही उसे संसार में अच्छे-बुरे का पाठ पढ़ाया जाता है, मर्यादा का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है उसी प्रकार बेटों को क्यूँ नहीं सिखाया जाता? हम बेटों की परवरिश के प्रति इतने ढीले और आलसी क्यूँ हैं? हार्दिक के पिता ने जिस प्रकार अपने बेटे का बचाव किया उससे ये स्पष्ट है कि वो स्वयं भी इसी मानसिकता के शिकार हैं और अपनी पत्नी को भी संभवतः उचित सम्मान उन्होने कभी ना दिया हो।

हार्दिक ने अपने वक्तव्य से ना केवल अपने चरित्र का दोष दर्शाया, अपनी घ्रणित मानसिकता का प्रदर्शन किया बल्कि अपने परिवार, अपने सह खिलाड़ियों और चीयर लीडर्स तक को अपमानित किया। किसी युवती या महिला से उनके कैसे और क्या संबंध रहें ये उनका और उस महिला का निजी निर्णय रहा होगा। उसका इस तरह भद्दा प्रदर्शन और पूरे क्रिकेट संसार का अपमान कहाँ तक उचित है? के.एल.राहुल और करण जौहर इस सब में बराबर के दोषी हैं जो हार्दिक की इन सारी बातों पर खिलखिला कर हँसते रहें। इस प्रकार वो कुछ ना कह कर भी अपना पूर्ण समर्थन हार्दिक को दे रहे थे।

इन्टरनेट पर किसी पत्रिका का लेख था कि जो हार्दिक ने कहा वो यदि किसी महिला ने नेशनल टीवी पर कहा होता तो हम उसे आंदोलनकारी मानते। उसकी प्रशंसा करते। हार्दिक की आलोचना मात्र इसलिए हो रही है क्यूंकी वो एक पुरुष हैं। लिखने वाले ने लिख दिया। पर क्या ये सही है? इस प्रकार की तुलनात्मक प्रतिक्रिया कहाँ तक उचित है। सत्य तो ये है कि यदि किसी महिला ने इस प्रकार नेशनल टीवी पर या खुले आम अपना सो कॉल्ड टेलेंट प्रदर्शित किया होता तो उसे आंदोलनकारी नहीं अपितु चरित्रहीन कहा जाता। डिबेट्स पर डिबेट्स चल रहे होते। ना जाने कौन-कौन सी सेनाएँ उसके घर के बाहर पत्थर फेंक रही होती और उसके नाम के फतवे निकल गए होते। कोई सिर काट लाने के लिए इनाम घोषित कर देता तो कोई भारत से ही बहिष्कृत किए जाने की मांग उठा रहा होता। इससे भी भयंकर है कि उसे हर जगह से बलात्कार की धमकियाँ मिलती और उसे हर सोशल प्लैटफ़ार्म पर असभ्य गंदी बातों से अपमानित किया जा रहा होता। पर पाण्ड्या और राहुल तो पुरुष हैं। तो उनके साथ ऐसा कौन और क्यूँ करेगा। इस तरह की वीभत्स सोच रखना तो पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। ऐसे में उन्होने अपने जीवन की कुछ झलकियाँ दे दीं और महिलाओं के प्रति अपनी सुंदर सोच का प्रदर्शन कर दिया तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी?

हार्दिक और के.एल.राहुल को अगली सुनवाई तक सस्पेंड किया गया है। उन्हें यकीनन दंड मिलना चाहिए। अब क्रिकेट एसोसियशन उन्हें क्या और कितना दंड सुनाती है ये भविष्य बताएगा। पर दंड का अर्थ ही क्या है यदि उन्हें अपनी भूल का एहसास ही ना हो। आवश्यक है कि उन्हें उचित पाठ पढ़ाया जाए जिससे वो अपनी घटिया मानसिकता से उबर सकें और स्त्रियों के प्रति अपने विचार बदल सकें।

कल ही मैंने पढ़ा कि दादा (सौरभ गांगुली) का वक्तव्य आया है। उन्होने कहा कि जो हुआ वो हुआ पर अब हमें आगे बढ़ना चाहिए। मुझे ठीक से बात समझ नहीं आयी। क्या वो पाण्ड्या और राहुल के लिए क्षमा की अपेक्षा कर रहे हैं। सौरभ गांगुली मेरे प्रिय क्रिकेटरों में से एक हैं। जिस समय लोग सचिन के दीवाने हुआ करते थे मुझे सौरभ गांगुली और राहुल द्रविड़ के खेल के प्रति आकर्षण था। पर आज दादा की ये बात मुझे चोट पहुंचा गयी। हम यूं ही आगे बढ़ते रहते हैं। स्त्रियों पर अत्याचार, शोषण आदि होता ही रहता है और हम आगे ही तो बढ़ते रहते हैं। 


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3 टिप्‍पणियां:

  1. सामजिक पतन की पराकाष्ठा, जिस देश में कहा जाता है कि जहां नारी की पूजा होती है वहाँ देवता वास करते हैं I दंड भी ऐसा होना चाहिए जिसको सुनकर ही सुनने वाला थर थर कांपने लगे तभी दंड का प्रभाव द्रष्टिगोचर होता है I

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  2. दरअसल हमारे देश में कथनी और करनी में बहुत अंतर है तथा दोहरा चरित्र भी,कहने को नारी जग जननी कहा गया परन्तु उसी नारी का वास्तविक रूप मात्र एक सेवक व् भोग विलास की वस्तु रहा है। हम किसी न किसी महापुरूष या देवी देवता के अनुयायी होते हैं और उसी के कर्मो को आदर्श मानकर अपने जीवन के रास्ते तय करते हैं। शायद भारत वर्ष में इसी के चलते नारी को वह सम्मान नही मिल पाया जिसकी वो हक़दार है। हम अपने धर्म ग्रन्थ रामचरित मानस को एक प्रेरणा दायक ग्रन्थ मानकर पढ़ते हैं,वह नारी भी पढ़ती है, जिसे तुलसीदास जी ने .............हम विश्व गुरु बनने के सपने देखते है और पाश्चात्य सभ्यता को भी अपना रहे है परन्तु नकारात्मक द्रष्टिकोण से सकारात्मक कुछ भी नही ले पाए। जरूरत है नजरिया बदलने की उनके समानता वाले अध्याय को अपनाने की , नारी को भी अपने अधिकारों के लिए पुरुष से लड़ना चाहिए चाहे फिर वो आपका पति पिता भाई या बेटा ही क्यों न हो,इस बात का भी ध्यान रहे कि अधिकारों का दुरपयोग भी न हो। भारत माँ की जय

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    1. मोहन जी, जानते हैं हमारे समाज की सबसे बड़ी समस्या क्या है? वो ये कि नारी को सदा सर्वदा से उन अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है जो उसके अस्तित्व की पहचान हैं। अपने अस्तित्व की लड़ाई कब तक और क्यों? समय और स्थिति स्त्रियों के लिए क्या कभी परिवर्तित नहीं होगी। आवश्यकता है कि पुरुष मानसिकता और परवरिश में बदलाव लाया जाए। जिस दिन संसार का हर बेटा अपने परिवार से ही सीखेगा कि स्त्री भी उसी प्रकार एक जीवन है जैसे पुरुष तो यकीन मानिए स्त्री सुरक्षा के लिए उन पर मर्यादा की कसौटी नही बांधनी पड़ेगी और ना ही बेटियों को ताले में बंद रहना पड़ेगा। ये सब मानसिकता का खेल है।

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