शुक्रवार, 4 जनवरी 2019

सबरीमाला और कुछ नहीं, स्त्री अपमान की एक और गाथा है


ये कैसा मंदिर है? ये कैसा ईश्वर है? ये कैसा स्थान है? जहां पूजा/प्रार्थना के लिए भी पुरुष और स्त्री का भेद है। सबरीमाला विवाद और कुछ नहीं बस स्त्री को अपमानित करने का एक और प्रयास है। किसी न किसी प्रकार पुरुष समाज अपना वर्चस्व स्थापित किए रहना चाहता है। आज जहां समाज में हर प्रकार की प्रगति हो रही है, स्त्रियॉं और पुरुषों के कार्यक्षेत्र भी समानता के स्तर पर हैं, वहाँ ईश्वर के एक रूप और उनके मंदिर में 50 की आयु से कम उम्र की स्त्रियॉं का मात्र इलसिए प्रवेश वर्जित है क्यूंकी वो प्रत्येक माह माहवारी के दौरान रक्तस्राव से पीड़ित होती हैं। इसलिए वे अशुद्ध हैं। पुरुष चाहे एक सहस्त्र ही कुकर्म क्यूँ न कर चुका हो फिर भी वो भगवान अयप्पन के दरबार में माथा टेक सकता है। सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के लिए एक लंबे समय से स्त्रियाँ आंदोलन कर रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय भी महिलाओं के पक्ष में निर्णय दे चुका है। फिर भी ये संभव नहीं हो पा रहा। हाल ही में लगभग 40-50 वर्ष के बीच की दो महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश किया और परिणाम ये हुआ कि मंदिर को शुद्धिकरण के लिए बंद कर दिया गया। उसके बाद विवाद गहराया। उस विवाद को कवर करने वाली एक मुस्लिम महिला पत्रकार के साथ वहाँ के शरद्धालुओं ने असभ्यता की। उसे लगातार गालियाँ दी। उसकी पीठ पर लात मारी और उसे उसका काम करने से रोकते रहे। वो फिर भी अडिग रही और अपना काम करती रही। ये उसके पूरे केरियर का सबसे मुश्किल और पीड़ादायक अवसर था।

कमाल की बात है ना, संसार का आरंभ जगत जननी माता आदि शक्ति से हुआ। तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश माता आदि शक्ति के ही अंश है। माता आदि शक्ति ने तीनों को उनकी अपनी शक्तियाँ सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती प्रदान की। हर देव के पास स्त्री रूप में उसकी शक्ति है और उस शक्ति के बिना वो देव भी अधूरा है। फिर भगवान अयप्पन जो महादेव और श्री हरी विष्णु के स्त्री अवतार मोहिनी के अंश हैं और जिनकी अपनी दो पत्नियाँ थीं, उन्हें सबरीमाला के मंदिर में स्त्रियाँ ही पूज नहीं सकतीं। क्यूँ?

मैं 12 वर्ष की थी जब मैंने माहवारी को जाना था। अचानक से हुए उस रक्त्स्त्राव और उदर पीड़ा को समझना और सहन करना उस आयु में बहुत कठिन था। मुझे इससे पहले तक इस विषय का कोई ज्ञान नहीं था। फिर मेरी माँ ने मुझे उस प्रक्रिया से सामंजस्य बिठाना सिखाया और धीरे-धीरे बहुत सारी बातें समझाईं कि कैसे ये प्रत्येक कन्या के लिए जीवन की अति आवश्यक प्रक्रिया है। जिससे उसे हर माह दो-चार होना पड़ता है। कन्या से स्त्री और स्त्री से माँ बनने की तरफ ये उसका पहला कदम होता है। फिर ये बतया कि अचार नहीं खाना, अचार छूना भी नहीं। दौड़ना नहीं, कूदना नहीं, वगैहरा-वगैहरा। एक माह माहवारी के ही एक दिवस मन बहुत विचलित था, उस वक़्त मूड स्विंग्स जैसे शब्द का भी ज्ञान नहीं था। मासूमियत में मैंने अपने घर के पूजा स्थान से दुर्गा शप्तशती की पुस्तक उठा कर पढ़ना शुरू कर दिया। जबकि इससे पहले मैंने कभी इस कठिन पुस्तक को हांथ भी नहीं लगाया था ना ही मैं इस आयु में पूजा का भाव समझती थी। बस अपने बाबा जी (दादा जी) को प्रातिदिन दुर्गा शप्त्शती का पाठ करते हुए देखा-सुना था। मैंने ऐसा क्यूँ किया मुझे नहीं पता, बस किया। उस दिन पता चला का कि माहवारी के दौरान पूजा-पाठ नहीं करते, मंदिर नहीं जाते यहाँ तक कि मुंह से किसी भगवान का नाम भी नहीं लेते। हालांकि मुझे डांट नहीं पड़ी पर मुझे ये सब मेरी माँ ने समझाया। मैंने पलट के नहीं पूछा कि ऐसा क्यूँ? तब से माँ की ये सारी सीखें मेरे अंदर स्थापित हो चुकी हैं और मैं आज तक उनका पालन करती हूँ। ये बात और है कि आज मुझे हर बात का ज्ञान है। मैं माहवारी से जुड़े विज्ञान को भी समझती हूँ और मेरी माँ ने जो मुझे समझाया उसके पीछे के कारण को भी।

अब मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि मेरी माँ की हर सीख के पीछे एक तार्किक कारण था ना कि रूढ़िवादी। उन्होने मुझे अचार छूने से इसलिए मना किया कि फिर मेरा मन उसे खाने को ललचाएगा और खाने के लिए इसलिए मना किया क्यूंकी अक्सर कन्याओं को माहवारी के समय खटाई नुकसान कर जाती है। हालांकि ये सब पर लागू नहीं होता किसी-किसी पर होता है। मुझे भागने-दौड़ने, खेलने-कूदने के लिए इसलिए रोका गया क्यूंकी मैं उस दौरान शरीर में खून की कमी से पीड़ित थी और मुझे माहवारी के समय असहनीय उदर पीड़ा से गुज़रना पड़ता था। हर सीख के पीछे मेरा ही भला था। पुरातन काल से स्त्रियों को माहवारी के समय अलग-थलग कर दिया जाता था, रसोई और काम-काज से दूर। उसके पीछे एक कारण ये था कि ये समय उन्हें सब चीजों से विलग विश्राम करने का अवसर मिलता था। पर इसको एक दुष्प्रथा में बदल कर स्त्रियों को दूषित या अशुद्ध मान लिया गया। टीवी के विज्ञापनों पर मत जाइए। यकीन मानिए हर स्त्री को उसके माहवारी के दिनों में आराम और शांति की आवश्यकता होती है। फिर चाहे वो स्त्री साधारण घरेलू, कामकाजी, पायलट, खिलाड़ी, मजदूर, या फिर पुलिस और सेना में ही क्यूँ ना हो। अब सभी अपने-अपने कार्यक्षेत्र पर डटी रहती हैं और सभी उत्तरदायित्व उसी प्रकार पूर्ण करती हैं जिस प्रकार वो माह के अन्य दिनों में करती हैं। 

अब बात पूजा-पाठ और मंदिर जाने के बारे में। मेरी माँ ने मुझे इस सब से रोका तो ये नहीं बताया कि ऐसा उन्होने क्यूँ किया, बस इतना कहाँ ऐसे में अच्छा नहीं लगता। उनकी ये बात बिलकुल सही है। माहवारी के दौरान स्त्री को स्वयं ही कुछ अच्छा नहीं लगता। जिसे समाज अशुद्धता का नाम देता है असल में वो असहजता है जो रोज़ मर्रा के काम करने में भी होने लगती है। पढ़ने-लिखने की इक्षा नहीं होती, कुछ काम करने का मन नहीं होता। जहां बैठे हो वहाँ से घंटो उठने का मन नहीं करता। यहाँ तक कि कई बार किसी से बात भी करने की इक्षा नहीं होती (ये सारे लक्षण साधारण और समान्यतः होते हैं पर हर लड़की के लिए अलग-अलग भी हो सकती हैं, सब पर एक समान लागू नहीं होती)। जी हाँ! मैं भी माहवारी के समय पूजा नहीं करती और मंदिर नहीं जाती। इसलिए नहीं कि मैं अशुद्ध हूँ बल्कि इसलिए क्यूंकी मैं असहज होती हूँ। सिर्फ मंदिर ही क्या यदि प्रत्येक स्त्री को उसकी माहवारी के दौरान उसके नियत उत्तरदायित्वों से अवकाश प्राप्त हो तो वो प्रसन्नता से इसे स्वीकार करेगी। लेकिन चूंकि आज के भाग-दौड़ और मुक़ाबले के इस युग में ये संभव नहीं तो स्त्री शरीर और मस्तिष्क से इतनी दुर्बल भी नहीं कि अपने उत्तरदायित्व ना निभा सके।

विज्ञान ने माहवारी के प्रति इतनी समझ समाज में बांटी है और स्वयं माता आदि शक्ति की संतान होने के बाद भी हमने ऐसी कुरीतियों को बढ़ावा दे रखा है। असल में सबरीमाला और अन्य देव स्थान जहां स्त्रियों का प्रवेश वर्जित किया गया है उसका कारण स्त्री की शारीरिक अशुद्धता या शुद्धता नहीं है बल्कि पुरुष और समाज का दूषित मन और मानसिक विकृति है।

मेरी सोच कहती है, क्यूँ जाना उस मंदिर, दरगाह में जहां मुझे ईश्वर के उस रूप के दर्शन के लिए अपनी शुद्धता का प्रमाण देना पड़े। आखिर क्यूँ स्त्रियाँ अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही है। इसकी लेश मात्र भी आवश्यकता नहीं है। क्या मंदिर में प्रवेश मात्र से सब कुछ हासिल हो जाएगा? जो स्थान आपका बहिष्कार करे उसे स्वयं के अस्तित्व से बहिष्कृत कर दीजिये। वो मंदिर वो ईश्वर वो स्थान आपके ध्यान का केंद्र होना ही नहीं चाहिए। जिस दिन स्त्रियाँ इस संसार में अपनी स्वयं शक्ति और अहमियत का ज्ञान कर लेंगी उस दिन कहीं कोई उनका बहिष्कार नहीं कर पाएगा। कल्पना कीजिये जिस दिन लड़कियां एक जुट हो कर दहेज प्रथा के विरुद्ध खड़ी हो जाएँ और विवाह नकार दें, बहिष्कृत कर दें ऐसे समाज को जो दहेज और शान के नाम पर ताम-झाम वाले मेंहगे विवाह में यकीन रखता है, उस दिन से ये कुप्रथा समाप्त हो जाएगी। हर कुप्रथा को हम ही बढ़ावा देते हैं। किसी मंदिर या मस्जिद में जाने के लिए आप जितना लड़ेंगीं उतना इस पुरुष समाज का घमंड बढ़ेगा। बहिष्कृत कीजिये ऐसे पुरुष को जिसे लगता है कि वो स्त्री के बिना पूर्ण है, स्त्री के बिना संसार चला सकता है, स्त्री को देव स्थान से विलग कर के पूजा का फल प्राप्त कर सकता है या ईश्वर की कृपा पा सकता है। बहिष्कार कीजिये ऐसे स्थान का, ऐसे मंदिर ऐसी प्रथा का, बहिष्कार कीजिये ऐसे ईश्वर का जो अपनी शक्ति का मान ना रख सके।  

2 टिप्‍पणियां:

  1. मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ । जो स्थान आपका बहिष्कार करे, आप स्वयं ही उसका बहिष्कार कर दें, यही उचित एवं आपके स्वाभिमान के अनुकूल है । जिस देवता को स्त्रियों के सान्निध्य से समस्या हो, उस देवता की पूजा स्त्रियां करें ही क्यों ?

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    1. सहमति के लिए धन्यवाद। साथ ही मेरे लेख आपको रुचिकर और समाज हित में लिखे गए जान पड़ते हैं तो कृपया इन्हें अन्य पाठकों से साझा करें।🙏

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