रविवार, 11 अगस्त 2019

अनुच्छेद 370 पर सरकार का ऐतिहासिक निर्णय- मेरे विचार


आवश्यक नहीं कि हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी ही जाए और कुछ लिखा-बोला ही जाए। पर बात जब कश्मीर कि आती है तो भारत का बच्चा-बच्चा बोलता है और बोल सकता है। ये बात और है कि वो प्रतिक्रियाएँ कितनी उचित और कितनी अनुचित होती हैं ये सब के लिए तय कर पाना मुश्किल है। जैसा कि हम सब जानते ही हैं कि हाल ही में भारत सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाते हुए उससे विशेष राज्य का दर्जा छीन कर आखिरकार अब भारत का हिस्सा बना लिया है। ये एक गंभीर मुद्दा है इसी कारण अधीरता ना दिखाते हुए मैंने अपना समय लिया और बहुत सोच समझ कर इस विषय पर अपनी राय लिखने का निर्णय लिया। हालांकि मैं अब तक इस विषय पर अपनी राय कायम नहीं कर पायी हूँ और ना ही मैं कोई विशेषज्ञ हूँ। इसलिए आम विचारधारा के अनुरूप इस निर्णय के खिलाफ़ नहीं हूँ। पर जिन और जैसी परिस्थितियों में सरकार ने निर्णय लिया और कश्मीर को एक केंद्र शासित राज्य बना दिया, वो मेरे भीतर अनेकों प्रश्न और आशंकायें उत्तपन्न कर देता है।

अनुच्छेद 370 के अनुसार कश्मीर को एक विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त था और उसके पास अपना एक अलग झण्डा था। बाहरी व्यक्तियों को कश्मीर में ज़मीन खरीदने और कश्मीरी लड़कियों को कश्मीर से बाहर शादी करने की आज़ादी नहीं थी। कश्मीर में ना ही भारत का संविधान और ना ही भारतीय कानून प्रणाली लागू होती थी। अनुच्छेद 370 के लिए राजनीति और भारत की जनता प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू पर दोषारोपण करती आयी है। जब्कि बहुत कम लोग जानते हैं (क्यूंकी वो पूर्वागृह से ग्रसित हैं और जानना ही नहीं चाहते) कि कश्मीर भारत का हिस्सा है भी तो पंडित नेहरू के कारण। जिस समय अनुच्छेद 370 लागू किया गया उस समय परिस्थितियों की मांग थी और पंडित जी ने स्पष्ट भी किया था कि ये प्रक्रिया अस्थायी है और “घिसते-घिसते एक दिन घिस जाएगी।“ कश्मीर में बाहरी लोगों के ज़मीन खरीदने पर पाबंदी का एक बड़ा कारण प्रकृति की सुरक्षा भी रहा है। जिस समय महाराज हरी सिंह ने ये निर्णय लिया था उस समय उन्हें डर था कि अंग्रेज़ कश्मीर के ठंडे और सुहाने मौसम के कारण वहाँ बसने का प्रयास करेंगे। इसलिए ज़मीन की खरीद फ़रोख्त पर पाबंदी लगाई गयी, हालांकि व्यापार पर पाबंदी नहीं थी।

देश की आज़ादी के बाद से अब तक अनुच्छेद 370 में इतने बदलाव हुए हैं कि वो नाम के बराबर ही कश्मीर में रह गया था। घिस-घिस के ख़त्म ही हो रहा था। पहले भी दो बार अनुच्छेद 370 को हटाने का प्रयास हुआ था जो सफल नहीं हो पाया और पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी जी के पश्चात कोई भी सरकार इतनी अधिक दल बल के साथ शासन में नहीं आई कि 370 पर मेजॉरिटी के साथ क्रियांवन कर सके। भाजपा सरकार ने अलगाववादी नेता महबूबा मुफ़्ती के साथ गठबंधन सरकार को गिरा कर पहले ही वहाँ गवर्नर शासन लागू कर चुकी थी। उसके बाद बेहद गोपनियता से कश्मीर में बड़ी मात्रा में फौज इकट्ठी की गयी, टेलीफोन, मोबाइल, इन्टरनेट और संचार के सभी साधन बंद किए गए, अलगाववादी नेताओं को नज़रबंद किया गया, धारा 144 लागू की और अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए बिल सीधे राज्य सभा में पेश किया गया और पास कर लिया गया। केंद्र सरकार का कहना है अब कश्मीर से आतंक ख़त्म हो जाएगा। कश्मीर का विकास होगा, नए आयाम बनेंगे।

हम भी यही चाहते हैं कि कश्मीर की वादी फिर से चहक उठे। कश्मीरियों को उनका हक़ मिले। सरकारी नौकरियों में संभावनाएं बढ़ें, रोजगार बढ़े, उन्नति हो और सबसे ऊपर कश्मीर आतंक मुक्त हो। पर इस सब में समय लगेगा और बहुत समय लगेगा। जब किसी निर्णय की सफलता और असफलता समय पर निर्भर हो और ऐसे में उस निर्णय से प्रभावित लोगों का मत ही ना पता हो या उनकी मर्ज़ी इस निर्णय में शामिल ना हो तो स्थितियाँ संभालना मुश्किल हो सकता है। कश्मीर पर आए फैसले में सारा भारत प्रसन्न है सिवाए कश्मीरियों के। उनकी शिकायत है कि उनके साथ धोका हुआ है। ना तो उनसे पूछा गया ना ही उन्हें बताया गया और बस उन पर ज़ोर ज़बरदस्ती और डर के सहारे से ये निर्णय थोप दिया गया। सबसे बड़ा सवाल यहाँ ये है कि कश्मीर को विशेष राज्य से राज्य का दर्जा भी ना दे कर केंद्र शासित राज्य क्यूँ बनाया गया। इसके पीछे भाजपा ने अपनी कोई राजनीतिक मंशा पूरी करने का प्रयास किया है।

जहां बाकी भारत में कश्मीर से भागे हुए कश्मीरी पंडित खुश हुए और जश्न मनाया (हालांकि उनके पुनर्स्थापन अभी तक कोई चर्चा नहीं हुई है) वहीं कश्मीर में अब भी हजारों की तादात में पंडित और सिक्ख भी रहते हैं जो सरकार के इस निर्णय से प्रसन्न नहीं हैं और इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर चुके हैं। उनका सबसे बड़ा डर है कि अब बाहरी लोग कश्मीर की ज़मीन हड़पने पहुँच जाएंगे और वादी पर ना केवल बोझ बढ़ेगा बल्कि प्रदूषण भी बढ़ेगा और केंद्र शासित राज्य होने के नाते अब पूरी तरह से कश्मीर केंद्र सरकार के नियंत्रण में रहेगा। कर्फ़्यू खुलने के बाद से वहाँ विरोध प्रदर्शन भी चल रहा है।

मुझे समझ नहीं आया कि सरकार ने ये निर्णय इस प्रकार क्यूँ लिया? कश्मीर और कश्मीरियों पर ये निर्णय इस तरह क्यूँ थोपा गया? कश्मीर में आम चुनाव करा कर, वहाँ के लोगों को अपने विश्वास में ले कर उन्हें बता कर भी ये निर्णय सरकार ले सकती थी। दूसरी बात, विशेष राज्य से सीधे केंद्र शासित राज्य बना देना भी मेरे जैसे व्यक्ति के लिए समझना मुश्किल है। हालांकि कश्मीर के चलते लद्दाख को फायदा हुआ है और लद्दाख के लोग उसे कश्मीर से अलग किए जाने और केंद्र शासित राज्य बना देने पर प्रसन्न भी हैं।

पर इस सब के बीच जो सबसे अनुचित बात है, वो है लोगों और खासतौर से भाजपा नेताओं की घ्रणित प्रतिक्रियायें। जैसे ही सरकार ने 370 हटा कर कश्मीर को केंद्र शासित राज्य बना देने का निर्णय सार्वजनिक किया लोगों ने इस गंभीर विषय का परिहास बना डाला। भारत की अधिकतर जनता के लिए अनुच्छेद 370 मात्र कश्मीर में ज़मीन खरीदने और कश्मीरी लड़की से विवाह करने तक सीमित है। भद्दे भाषण, भद्दी टिप्पणियों से ना केवल भाजपा नेताओं ने अति कर रखी है बल्कि पूरा सोशल मीडिया इस गंदगी से भरा पड़ा है। ये हमारे समाज की गिरि हुई सोच है कि कश्मीरी बेटी उन्हें बेटी नहीं लगती। हवस के दरिंदे उन्हें नोचने के लिए तैयार बैठे हैं।  

भारतीय मीडिया कश्मीर के सही हालात नहीं दिखा रही। इंटेलिजेंस प्रमुख अजीत डोभाल वहाँ जा कर कुछ लोगों के बीच खाना खाते हुए अपनी तस्वीर खिंचवा कर ऐसा संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं कि वहाँ सब शांत है और कश्मीरी खुश हैं। हालांकि मेरी राय भी यही है कि सरकार का निर्णय सही है बस उनका तरीका गलत है और कश्मीर का केंद्र शासित राज्य बना दिये जाने के समर्थन में भी मैं नहीं हूँ। अब ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हमारी जन्नत में सब कुछ ठीक रहे, शांत रहे और जैसा कि सरकार का कहना है आतंक ख़त्म हो, विकास हो।   



गुरुवार, 1 अगस्त 2019

आर.टी.आई. अमेंडमेंट और सरकार की मंशा


मोदी राज 2.0 में संसद में बिल ऐसे पास हो रहे हैं जैसे किसी बड़े रेस्टोरोंट में वहाँ का मीनू पास होता है। जनता को लग रहा है सरकार बहुत काम कर रही है। मेहनत से, मशक्कत से देश के हित में रणनीतियाँ बना रही है। हाँ, सरकार कर तो बहुत कुछ रही है पर जनता और देश के हित में नहीं अपने हित में। कैसे?

ये समझने के लिए हाल ही में पास किए गए तीन बिलों पर गौर कीजिये-

1. यू.ए.पी.ए. संशोधन बिल
2. आर.टी.आई. संशोधन बिल
3. तीन तलाक बिल (संशोधनों के साथ)

गौर कीजियेगा तीनों में ये शब्द संशोधन कॉमन है। तीन तलाक बिल के नुकसान और उसका झोल मैं पहले ही अपने एक ब्लॉग में लिख चुकी हूँ। नीचे दिये लिंक को खोल कर आप उसे पढ़ सकते हैं यदि आपने अब तक नहीं पढ़ा:

यू.ए.पी.ए. संशोधन बिल पर मैं अपने अगले ब्लॉग में लिखूँगी।

यहाँ बात करते हैं दूसरे बिल यानी RTI Amendment Bill की। अब कुछ ऐसे परिवर्तन हो गए हैं कि यदि आप इन amendments को जानने के लिए एक RTI डालें तो सूचना अधिकारी आपको जवाब देगा कि “इन परिवर्तनों के चलते वो आपको इन परिवर्तनों की सूचना नहीं दे सकता।“ सन 2005 में कॉंग्रेस सरकार ने हमें आर.टी.आई. के रूप में सूचना का अधिकार दिया। फिर गौर कीजिएगा कि ये वही सरकार है जिसे हम देश को 60 साल लूटने और भ्रष्टाचार में लिप्त रहने वाली सरकार कह कर कोसते हैं। सूचना का अधिकार पाने के बाद सरकार और सभी विभागों की जनता से सीधी जवाबदेही का एक रास्ता खुला। अब जनता सीधे संबन्धित विभाग से अपनी वांछित सूचनाओं को एक साधारण से मूल्य को चुका कर एक निश्चित अवधि के अंदर प्राप्त कर सकती थी। इसके लिए सरकार ने हर विभाग में जन सूचना अधिकारी की नियुक्तियाँ की। कुछ विभागों में वहाँ के सबसे मुख्य उत्तरदायित्व वाले अधिकारी को जन सूचना अधिकारी का कार्यभार सौंपा गया। नतीजन ना जाने कितने ही घोटाले सामने आए। खुद कॉंग्रेस सरकार भी इससे बची नहीं रही। अगर RTI ना होता तो क्या कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, कोल गेट घोटाला और 2जी घोटाला कभी सामने आ पाता? यहाँ तक कि इसी एक्ट के कारण ही हमें नोटबंदी के बाद रिज़र्व बैंक तक पहुँचने वाली मुद्रा की संख्या के बारे में पाता चल सका। फिर अचानक भाजपा सरकार को या कहना चाहिए कि मोदी सरकार को जो भ्रष्टाचार विरोधी है, क्या आवश्यकता पड़ी इस प्रणाली और प्रक्रिया में परिवर्तन करने की?

RTI Act के अंदर एक इन्फॉर्मेशन कमीशन होता है, एक राज्य स्तर पर और एक केंद्र स्तर पर। इनके अंदर इन्फोर्मेशन कमिश्नर होते हैं। एक चीफ इन्फोर्मेशन कमिशनर होता है जिसका मुख्य कार्य होता है किसी भी RTI आवेदन जिसका उत्तर यदि संबन्धित जन सूचना अधिकारी द्वारा समय पर ना दिया गया हो उस पर आगे एक्शन लेते हुए संबन्धित विभागों से सूचना निकालना और आवेदक तक पहुंचाना। इसके अलावा यदि आवेदक पर अधिक फीस चार्ज की गयी हो तो इसकी शिकायत भी इनसे की जा सकती है। इन सूचना आयुक्तों को स्वतंत्र रखने के लिए इनका 5 वर्ष का एक निश्चित कार्यकाल होता है और इनकी एक निश्चित तनख्वा होती है जिसकी तुलना चुनाव आयुक्त या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश से की जा सकती है क्यूंकी उनका भी एक निश्चित कार्यकाल और परिश्रमिक होता है। जैसे चुनाव आयुक्त वैसे ही सूचना आयुक्त और इनका स्वतंत्र होना बहुत आवश्यक है। सीधी सरल सी बात है कि यदि ये विभाग सरकार के दबाव या रहमोकरम में कार्य करेंगे तो ये जनता के प्रति निष्पक्ष और ईमानदार कैसे रह सकते हैं? अगर ये विभाग सरकार के अंदर कार्य करेंगे तो आपको सूचना कैसे मिलेगी? या तो आपका आवेदन ही निरस्त हो जाएगा या आपको सूचना देने से मना कर दिया जाएगा।   

ये समझ लेते हैं कि ये परिवर्तन या amendments हैं क्या?

अब इन सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और परिश्रमिक या तनख्वा केंद्र सरकार तय करेगी। RTI Act का आर्टिकल 13 तय करता है सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और परिश्रमिक के बारे में और इसी आर्टिकल 13 में परिवर्तन लाया गया है जिसके बाद इन सूचना आयुक्तों का कार्यकाल तनख्वा और अन्य भत्ते अब केंद्र सरकार तय करेगी। इसी प्रकार आर्टिकल 16 में राज्य सूचना आयुक्तों के भी कार्यकाल, तनख्वा और भत्ते आदि केंद्र सरकार तय करेगी। ये amendment बिल लोक सभा में पास होने के बाद 25 जुलाई ओ राज्य सभा में भी पास कर दिया गया। हालांकि राज्य सभा में भाजपा का संख्या बल कम था और वहाँ इसके पास होने की गुंजाइश नहीं थी। पर बीजेडी और टीआरएस ने भाजपा का समर्थन किया और ये बिल पास हो गया। इसका दोष इन तीनों पार्टियों को जाता है क्यूंकी बाकी विपक्ष इन परिवर्तनों के सख्त खिलाफ था।

अब समझिए इन परिवर्तनों को लाने की आवश्यकता क्या थी। कारण स्पष्ट है, सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता को पूरी तरह से छीन लेना। जिस तरह हमारी प्रशासनिक सेवाएँ और पुलिस रजीनीतिज्ञों की कठपुतली बने रहते हैं वैसे ही अब सूचना आयुक्तों का हाल होगा। ऐसा बहुत कुछ है RTI Act में जो सरकार को असहज किए हुए है:
            
जैसे कि माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का डिग्री मामला। 2015 में नीरज शर्मा नाम के एक RTI activist ने RTI दायर की ये जानने के लिए कि 1978 में दिल्ली विश्वविध्यालय में बी.ए. पास करने वालों की विस्तार सूचना मांगते हुए। जिसमें उनके नाम और उनके प्राप्तांकों के बारे में पूछा गया। जब दिल्ली विश्वविध्यालय ने ये सूचना देने से मना कर दिया तब नीरज शर्मा ने सूचना आयुक्त से शिकायत दर्ज की। कुछ माह के समय के बाद सूचना आयुक्त ने आदेश किया कि ये सूचना आवेदक को प्राप्त कराई जानी चाहिए। इस पर दिल्ली विश्वविध्यालय ने उत्तर दिया कि हम ये सूचना नहीं दे सकते पर हम अपनी ओर से ये बता सकते हैं कि मोदी जी ने वहाँ से 1978 में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी। उसके बाद अपनी सूचना का बचाव करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय अदालत पहुँच गया और आज भी ये मामला अदालत के आधीन पड़ा है।
            
दूसरा मामला है किसी का RTI फाइल कर के रिज़र्व बैंक ये सूचना मांगना कि जितने भी एन.पी.ए. और डिफ़ौलटर्स हैं जिहोने अपने कर्ज़ नहीं चुकाए हैं उनके नाम सार्वजनिक किए जाने चाहिए। RBI ने भी ये करने से मना कर दिया और फिर से वही प्रक्रिया और मामला अदालत में।

 तीसरा मामला है चुनाव आयोग से 2019 में हुए चुनाव के दौरान मतों की संख्या और वीवीपैट पर्चियों की संख्या के मिलान की। जिसे चुनाव आयोग देने से लगातार मना कर रहा है और सूचना अर्ज़ी सूचना आयुक्त के निस्तारण के   आधीन है।

अब ये भी जानिए कि ये मोदी सरकार का सूचना के अधिकार पर ये प्रथम वार नहीं है। अब तक 32000 से अधिक अपील और शिकायतें बिना उत्तर और निस्तारण के पड़ी हुई हैं सूचना आयोग के पास। ऐसा इसलिए है क्यूंकी 2018 के अंत तक सरकार ने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति ही नहीं की। सूचना आयुक्तों के 11 पदों पर 8 खाली ही पड़े थी। अब सोचिए कि जब सूचना आयुक्त ही नहीं होंगे तो आप जन सूचना अर्ज़ी निरस्त होने पर किस के पास अपील करने जाएंगे। जब कुछ activists ने सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई तब सरकार ने 4 आयुक्तों की नियुक्ति और की। पर अब भी 4 पद खाली ही पड़े हैं।

अरुणा रॉय जिन्होने RTI को बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था वो इन amendments या परिवर्तनों के बाद लगातार सड़क पर विरोध कर रही हैं। पर हमारा बिकाऊ मीडिया ये सब जनता तक पहुंचा ही नहीं रहा। अन्ना हज़ारे ने भी इन परिवर्तनों से तानाशाही आने की बात कही है। हालांकि वो अपनी उम्र के चलते विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा नहीं बन रहे पर उन्होने अपना समर्थन दिया है।

मोदी सरकार का कहना है कि वो इस एक्ट को और मजबूत कर रहे हैं पर कैसे इस बात का कोई सार्थक उत्तर नहीं है उनके पास। जबकि होना ये चाहिए कि सूचना आयोग एक स्वतंत्र विभाग बने जो किसी भी तरह से किसी के भी दबाव और निर्देशों के आधीन ना हो। तब ही तो इस सूचना के अधिकार की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। क्या अब भी आपको तत्कालीन सरकार की मंशाओं को समझने में कोई कसर बाकी है?
  



अनुच्छेद 370 पर सरकार का ऐतिहासिक निर्णय- मेरे विचार

आवश्यक नहीं कि हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी ही जाए और कुछ लिखा-बोला ही जाए। पर बात जब कश्मीर कि आती है तो भारत का बच्चा-बच्चा बोलता है और ...