मोदी
राज 2.0 में संसद में बिल ऐसे पास हो रहे हैं जैसे किसी बड़े रेस्टोरोंट में वहाँ
का मीनू पास होता है। जनता को लग रहा है सरकार बहुत काम कर रही है। मेहनत से, मशक्कत से देश के हित में रणनीतियाँ बना रही है। हाँ, सरकार कर तो बहुत कुछ रही है पर जनता और देश के हित
में नहीं अपने हित में। कैसे?
ये
समझने के लिए हाल ही में पास किए गए तीन बिलों पर गौर कीजिये-
1.
यू.ए.पी.ए. संशोधन बिल
2.
आर.टी.आई. संशोधन बिल
3.
तीन तलाक बिल (संशोधनों के साथ)
गौर कीजियेगा तीनों में ये शब्द संशोधन कॉमन है। तीन तलाक बिल के नुकसान और उसका
झोल मैं पहले ही अपने एक ब्लॉग में लिख चुकी हूँ। नीचे दिये लिंक को खोल कर आप उसे
पढ़ सकते हैं यदि आपने अब तक नहीं पढ़ा:
यू.ए.पी.ए.
संशोधन बिल पर मैं अपने अगले ब्लॉग में लिखूँगी।
यहाँ
बात करते हैं दूसरे बिल यानी RTI Amendment Bill की। अब कुछ ऐसे परिवर्तन हो गए हैं कि
यदि आप इन amendments को जानने के लिए एक RTI डालें तो सूचना अधिकारी आपको जवाब देगा कि “इन
परिवर्तनों के चलते वो आपको इन परिवर्तनों की सूचना नहीं दे सकता।“ सन 2005 में
कॉंग्रेस सरकार ने हमें आर.टी.आई. के रूप में सूचना का अधिकार दिया। फिर गौर
कीजिएगा कि ये वही सरकार है जिसे हम देश को 60 साल लूटने और भ्रष्टाचार में लिप्त
रहने वाली सरकार कह कर कोसते हैं। सूचना का अधिकार पाने के बाद सरकार और सभी
विभागों की जनता से सीधी जवाबदेही का एक रास्ता खुला। अब जनता सीधे संबन्धित विभाग
से अपनी वांछित सूचनाओं को एक साधारण से मूल्य को चुका कर एक निश्चित अवधि के अंदर
प्राप्त कर सकती थी। इसके लिए सरकार ने हर विभाग में जन सूचना अधिकारी की
नियुक्तियाँ की। कुछ विभागों में वहाँ के सबसे मुख्य उत्तरदायित्व वाले अधिकारी को
जन सूचना अधिकारी का कार्यभार सौंपा गया। नतीजन ना जाने कितने ही घोटाले सामने आए।
खुद कॉंग्रेस सरकार भी इससे बची नहीं रही। अगर RTI
ना होता तो क्या कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, कोल गेट घोटाला और 2जी घोटाला कभी सामने
आ पाता? यहाँ तक कि इसी एक्ट के कारण ही हमें नोटबंदी
के बाद रिज़र्व बैंक तक पहुँचने वाली मुद्रा की संख्या के बारे में पाता चल सका। फिर
अचानक भाजपा सरकार को या कहना चाहिए कि मोदी सरकार को जो भ्रष्टाचार विरोधी है, क्या आवश्यकता पड़ी इस प्रणाली और प्रक्रिया में
परिवर्तन करने की?
RTI Act के अंदर एक इन्फॉर्मेशन कमीशन होता है, एक राज्य स्तर पर और एक केंद्र स्तर पर। इनके अंदर
इन्फोर्मेशन कमिश्नर होते हैं। एक चीफ इन्फोर्मेशन कमिशनर होता है जिसका मुख्य
कार्य होता है किसी भी RTI आवेदन जिसका उत्तर यदि संबन्धित जन सूचना
अधिकारी द्वारा समय पर ना दिया गया हो उस पर आगे एक्शन लेते हुए संबन्धित विभागों
से सूचना निकालना और आवेदक तक पहुंचाना। इसके अलावा यदि आवेदक पर अधिक फीस चार्ज की
गयी हो तो इसकी शिकायत भी इनसे की जा सकती है। इन सूचना आयुक्तों को स्वतंत्र रखने
के लिए इनका 5 वर्ष का एक निश्चित कार्यकाल होता है और इनकी एक निश्चित तनख्वा
होती है जिसकी तुलना चुनाव आयुक्त या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश से की जा सकती
है क्यूंकी उनका भी एक निश्चित कार्यकाल और परिश्रमिक होता है। जैसे चुनाव आयुक्त
वैसे ही सूचना आयुक्त और इनका स्वतंत्र होना बहुत आवश्यक है। सीधी सरल सी बात है
कि यदि ये विभाग सरकार के दबाव या रहमोकरम में कार्य करेंगे तो ये जनता के प्रति निष्पक्ष
और ईमानदार कैसे रह सकते हैं? अगर ये विभाग सरकार के अंदर कार्य करेंगे
तो आपको सूचना कैसे मिलेगी? या तो आपका आवेदन ही निरस्त हो जाएगा या
आपको सूचना देने से मना कर दिया जाएगा।
ये समझ लेते हैं कि ये परिवर्तन या amendments हैं क्या?
अब
इन सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और परिश्रमिक या तनख्वा केंद्र सरकार तय करेगी। RTI Act का आर्टिकल 13 तय करता है सूचना आयुक्तों
के कार्यकाल और परिश्रमिक के बारे में और इसी आर्टिकल 13 में परिवर्तन लाया गया है
जिसके बाद इन सूचना आयुक्तों का कार्यकाल तनख्वा और अन्य भत्ते अब केंद्र सरकार तय
करेगी। इसी प्रकार आर्टिकल 16 में राज्य सूचना आयुक्तों के भी कार्यकाल, तनख्वा और भत्ते आदि केंद्र सरकार तय करेगी। ये amendment बिल लोक सभा में पास होने के बाद 25 जुलाई ओ राज्य
सभा में भी पास कर दिया गया। हालांकि राज्य सभा में भाजपा का संख्या बल कम था और
वहाँ इसके पास होने की गुंजाइश नहीं थी। पर बीजेडी और टीआरएस ने भाजपा का समर्थन
किया और ये बिल पास हो गया। इसका दोष इन तीनों पार्टियों को जाता है क्यूंकी बाकी
विपक्ष इन परिवर्तनों के सख्त खिलाफ था।
अब
समझिए इन परिवर्तनों को लाने की आवश्यकता क्या थी। कारण स्पष्ट है, सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता को पूरी तरह से छीन
लेना। जिस तरह हमारी प्रशासनिक सेवाएँ और पुलिस रजीनीतिज्ञों की कठपुतली बने रहते
हैं वैसे ही अब सूचना आयुक्तों का हाल होगा। ऐसा बहुत कुछ है RTI Act में जो सरकार को असहज किए हुए है:
जैसे कि माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र
मोदी जी का डिग्री मामला। 2015 में नीरज शर्मा नाम के एक RTI activist ने RTI दायर की ये जानने के लिए कि 1978 में दिल्ली विश्वविध्यालय
में बी.ए. पास करने वालों की विस्तार सूचना मांगते हुए। जिसमें उनके नाम और उनके प्राप्तांकों के बारे में पूछा गया।
जब दिल्ली विश्वविध्यालय ने ये सूचना देने से मना कर दिया तब नीरज शर्मा ने सूचना आयुक्त से शिकायत दर्ज की। कुछ
माह के समय के बाद सूचना आयुक्त ने आदेश
किया कि ये सूचना आवेदक को प्राप्त कराई जानी चाहिए। इस पर दिल्ली विश्वविध्यालय ने
उत्तर दिया कि हम ये सूचना नहीं दे सकते
पर हम अपनी ओर से ये बता सकते हैं कि मोदी जी ने वहाँ से 1978 में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की
थी। उसके बाद अपनी सूचना का बचाव करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय अदालत पहुँच गया
और आज भी ये मामला अदालत के आधीन
पड़ा है।
दूसरा मामला है किसी का RTI फाइल कर के रिज़र्व बैंक ये सूचना मांगना कि जितने भी एन.पी.ए.
और डिफ़ौलटर्स हैं जिहोने अपने कर्ज़ नहीं
चुकाए हैं उनके नाम सार्वजनिक किए जाने चाहिए। RBI
ने भी ये करने से मना कर दिया और फिर से वही
प्रक्रिया और मामला अदालत में।
तीसरा मामला है चुनाव आयोग से 2019 में
हुए चुनाव के दौरान मतों की संख्या और वीवीपैट पर्चियों की संख्या के मिलान की। जिसे चुनाव आयोग देने से लगातार मना
कर रहा है और सूचना अर्ज़ी सूचना आयुक्त के निस्तारण के आधीन है।
अब
ये भी जानिए कि ये मोदी सरकार का सूचना के अधिकार पर ये प्रथम वार नहीं है। अब तक 32000
से अधिक अपील और शिकायतें बिना उत्तर और निस्तारण के पड़ी हुई हैं सूचना आयोग के पास।
ऐसा इसलिए है क्यूंकी 2018 के अंत तक सरकार ने सूचना आयुक्तों की नियुक्ति ही नहीं
की। सूचना आयुक्तों के 11 पदों पर 8 खाली ही पड़े थी। अब सोचिए कि जब सूचना आयुक्त ही
नहीं होंगे तो आप जन सूचना अर्ज़ी निरस्त होने पर किस के पास अपील करने जाएंगे। जब कुछ
activists ने सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई तब सरकार
ने 4 आयुक्तों की नियुक्ति और की। पर अब भी 4 पद खाली ही पड़े हैं।
अरुणा
रॉय जिन्होने RTI को बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था
वो इन amendments या परिवर्तनों के बाद लगातार सड़क पर विरोध
कर रही हैं। पर हमारा बिकाऊ मीडिया ये सब जनता तक पहुंचा ही नहीं रहा। अन्ना हज़ारे
ने भी इन परिवर्तनों से तानाशाही आने की बात कही है। हालांकि वो अपनी उम्र के चलते
विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा नहीं बन रहे पर उन्होने अपना समर्थन दिया है।
मोदी
सरकार का कहना है कि वो इस एक्ट को और मजबूत कर रहे हैं पर कैसे इस बात का कोई सार्थक
उत्तर नहीं है उनके पास। जबकि होना ये चाहिए कि सूचना आयोग एक स्वतंत्र विभाग बने जो
किसी भी तरह से किसी के भी दबाव और निर्देशों के आधीन ना हो। तब ही तो इस सूचना के
अधिकार की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। क्या अब भी आपको तत्कालीन सरकार की मंशाओं को समझने
में कोई कसर बाकी है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें