इस
लेख को पढ़ कर आप को ऐसा लगेगा कि इसमें नया क्या है?
ये सब तो हमें पता है। यही तो बात है कि हमें सब पता है। जल संकट और संरक्षण, दोनों ही विषयों पर आपको इन्टरनेट पर ढेरों लेख मिल जाएंगे।
लोग लघभग हर रोज़ इस ओर संसार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। फिर भी हर
रोज़ ही किसी ना किसी को इस बारे में लिखना ही पड़ता है।
प्रधानमंत्री
पद के अपने दूसरे कार्यकाल के बाद पिछले इतवार मोदी जी ने प्रथम बार अपने “मन की
बात” से जनता को संबोधित किया। उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी उनका जल संकट और जल
संरक्षण की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करना। अच्छा लगा कि वो स्वयं भी इस समस्या के
प्रति जागरूक हैं। पर फिर याद आया कि लोक सभा चुनाव से पहले उनकी रैली और जन
सम्बोधन के वाराणसी में सड़कें धोने के लिए 1.4 लाख लीटर पानी बर्बाद किया गया था
और जिसके नतीजन वहाँ की आधी से अधिक जनता को कई दिनों तक पानी की किल्लत झेलनी पड़ी
थी।
असल
में ये लेख जल संरक्षण के संबंध में है ना कि सरकार को दोष देने के लिए। पर दोषी
हम सब हैं। ‘जल संकट’
आज आचनक नहीं उपजा है। हम जी खोल के पानी बर्बाद करते हैं, सरकार भी करती है। सारा अद्योगिक कचड़ा आज भी नदियों
में जा कर उन्हें प्रदूषित करता है। गंगा नदी को स्वच्छ करने के लिए कई बार बड़ी
मात्रा में सरकार की तरफ से बजट आया। पर उस बजट का आधा ही खर्च किया गया। आज भी
गंगा की स्थिति वैसी ही है। अनेकों स्थानों पर गंगा का जल प्रदूषित है और पीने
लायक नहीं रहा। यमुना तो पहले से ही अनेकों स्थाओं पर विषैली हो चुकी हैं। तमिल
नाडु में तो कई वर्ष पहले ये नियम बना दिया गया था कि नयी इमारतों को बनाते समय
“वर्षा जल संरक्षण” की व्यवस्था होनी ही चाहिए। पर नियम बनाना और उसे पूरे कायदे
से सफल कराने में फर्क है। नदी जहां-जहां रास्ता छोड़ती है वहाँ इमारतें बनाते जाना, झीलें और तालाब भर कर घर बनाते जाना। पहाड़ी क्षेत्रों
में अवैध स्टोन क्रशर्स, नदियों से अवैध बालू और मौरंग का खनन
रोका नहीं जा रहा। ये सब हमने ही तो किया है और इस तरह से अब सरकार भूमि अधिग्रहण
करती है तो (रविश कुमार की ज़ुबान में) उसे भू-माफिया नहीं कहते, उसे विकास कहते हैं।
खैर
अब भी सचेत होने की अवश्यकता है। जल संरक्षण का सीधा उपाए, आम जनता के लिए होता है- जल का कम से कम और आवश्यकता
अनुसार ही प्रयोग करना। छोटी-छोटी बातें जैसे सुबह ब्रश करते समय या दाढ़ी बनाते
समय वॉश बेसिन का नल बंद रखा जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर ही उसे चलाइये वो भी
उतना ही तेज़ जितने में आपका कार्य सिद्ध होता हो। नल को पूरी तीव्रता के साथ खोलने
में भी पानी बेकार बहता है। इसी तरह बर्तन धोते समय भी पानी आवश्यक मात्रा से अधिक
ही खर्च हो जाता है। बर्तन माँजने के लिए पानी एक तरफ भर कर रखा जा सकता है और
सारे बर्तन माँज कर रखने के बाद धीमे नल की धार में वो बर्तन धोये जा सकते हैं या
फिर दूसरे बर्तन में रखे साफ जल से वो बर्तन धोये जा सकते हैं। नहाते समय शावर के
स्थान पर बाल्टी का ही प्रयोग करें। घर में ग्लासों में रखा बचा हुआ पानी फेंकने
से अच्छा उसे एक जगह इकट्ठा करें। उसे बर्तन धोने या पौधों में डालने के काम में
लाएँ। इस में ऐसा कुछ नहीं जो हमें पता नहीं। फिर भी हम अपने आप को बदलते नहीं।
इस
छोटी बचत की विस्तार से चर्चा करते हैं:
पानी
के दो प्रकार होते हैं एक ब्लैक वाटर और दूसरा ग्रे वाटर। ब्लैक वाटर वो है जो
टॉइलेट में जाता है, जिसमें हमारा मल होता है। वो जल गंदा ही
है उसे ना तो ट्रीट किया जा सकता है ना ही दोबारा प्रयोग। ग्रे वाटर वो होता है
जिससे हम नहाते हैं, कपड़े धोते हैं या बर्तन धोते हैं। इस
पानी में मिट्टी, साबुन और लिंट (कपड़ों के रेशे) होता है।
इस पानी को यदि हम संरक्षित कर सकें तो इसका दोबारा प्रयोग हो सकता है। ज़ाहिर सी
बात है इसे हम पी नहीं सकते पर दोबारा प्रयोग कर सकते हैं। उस पानी को दोबारा कपड़े
धोने, बर्तन माँजने और पोंछा लगाने में प्रयोग
किया जा सकता है। इससे साफ पानी के प्रयोग की मात्रा में एक स्वाभाविक कमी आएगी।
गर्मियों में हमारे घर के एयर कंडीशनर्स से जो पानी निकलता है वो असल में ग्रे
वाटर भी नहीं होता वो पानी साफ ही होता है। यदि हम उस पानी को संरक्षित करें तो
उसे घर के विभिन्न कार्यों (पीने के अतिरिक्त) में प्रयोग कर सकते हैं या पौधों
में भी डाल सकते हैं। कुछ समय पहले इन्टरनेट पर एक फोटो वाइरल हुई थी जिसमें आर.ओ.
या वाटर प्यूरिफाइयर्स ने निरंतर बहने वाले पानी को एक टंकी में इकट्ठा कर के उसे
वॉशिंग मशीन में इस्तेमाल किया जाता है। वो भी एक बहुत अच्छा प्रयोग है। इसी प्रकार
वॉशिंग मशीन से रिंस हो कर बह जाने वाले पानी को हम पोंछा लगाने या धुलाई के काम
में प्रयोग कर सकते हैं। बस करना ये है कि किसी प्रकार बहते जल को संरक्षित करने
का प्रयास करना है या सरल भाषा में कहूँ तो जुगाड़ फिट करनी है।
लगातार
जंगलों का काटे जाना, हरे पेड़ों को जड़ से उखाड़ देना, जल स्तर को कम करता जा रहा है। पर्यावरण बचाने का भार
हमारे ही कंधों पर है। अब देखिये ऐसा नहीं कि सरकार कुछ नहीं कर सकती। वो सब जानती
है और बहुत कुछ कर सकती है। पर बस हम अपने देश और समाज के असल मुद्दों पर उसका
ध्यान आकर्षित नहीं कर रहे।
1.
नदियों की सफाई
2.
अद्योगिक कचरे का निस्तारण
3.
वाटर ट्रीटमेंट प्लांट्स (जल-उपचार केंद्र)
4.
सूखे कुएं, झीलों,
नहरों और नदियों का पुनुरुत्थान
5.
वर्षा जल संरक्षण और उसका सदुपयोग
6.
पूरे भारत में अद्योगिक क्षेत्र और कमर्शियल क्षेत्र के लिए वर्षा जल संरक्षण, उपचार और प्रयोग का कानूनन लागू किया जाना।
7.
क्लाउड सीडिंग
8.
जल संरक्षण जागरूकता अभियान
9.
मिट्टी को पकड़ के रखने वाले पेड़ों को बड़ी मात्रा मे लगाया जाना और जंगलों का
पुनरुत्थान किया जाना।
उपरलिखित
उपायों में से कुछ राज्य सरकारों ने “क्लाउड सीडिंग” के लिए कई करोड़ रुपये का बजट तय
कर रखा है। ये एक विस्तृत विषय है, इस पर आप अधिक जानकारी के लिए गूगल सर्च कर
सकते हैं। इसे समझाने के लिए पूरा एक लेख लगेगा। हालांकि अभी ये पूरे विश्वास के साथ
नहीं कहा जा सकता कि ये प्रक्रिया कितनी कारगुज़र होगी। इससे बेहतर और सस्ते उपाए हमारे
पास मौजूद हैं जो कि भारत सरकार अपना सकती है।
जल
संकट और फिर इन जाने बूझे उपायों के बारे में लिखने का मेरा मन्तव्य मात्र इतना है
कि सचेत हो जाइए। अब भी समय है। जल संरक्षण कीजिये,
बर्बादी मत कीजिये। किसी को जल की बर्बादी करने भी मत दीजिये। कम से कम जल संरक्षण
के लिए वो सारे उपाए अपनाइए जो आप सरलता से अपना सकते हैं। दूसरी और मुख्य बात- राष्ट्रवाद, धर्म और जातिवाद से ऊपर उठ कर अपने असल और गंभीर मुद्दों
की तरफ अपना और सरकार का ध्यान आकर्षित कीजिये। सरकार को मजबूर कीजिये कि वो प्रकृति
के साथ खिलवाड़ करना बंद करे। विकास के नाम पर संसाधन नष्ट करना बंद करे और देश के भविष्य
के लिए सार्थक कदम उठाए।
कहने
की आवश्यकता नहीं पर “जल ही जीवन है”
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