आवश्यक
नहीं कि हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी ही जाए और कुछ लिखा-बोला ही जाए। पर बात जब
कश्मीर कि आती है तो भारत का बच्चा-बच्चा बोलता है और बोल सकता है। ये बात और है
कि वो प्रतिक्रियाएँ कितनी उचित और कितनी अनुचित होती हैं ये सब के लिए तय कर पाना
मुश्किल है। जैसा कि हम सब जानते ही हैं कि हाल ही में भारत सरकार ने कश्मीर से
अनुच्छेद 370 को हटाते हुए उससे विशेष राज्य का दर्जा छीन कर आखिरकार अब भारत का
हिस्सा बना लिया है। ये एक गंभीर मुद्दा है इसी कारण अधीरता ना दिखाते हुए मैंने
अपना समय लिया और बहुत सोच समझ कर इस विषय पर अपनी राय लिखने का निर्णय लिया।
हालांकि मैं अब तक इस विषय पर अपनी राय कायम नहीं कर पायी हूँ और ना ही मैं कोई
विशेषज्ञ हूँ। इसलिए आम विचारधारा के अनुरूप इस निर्णय के खिलाफ़ नहीं हूँ। पर जिन
और जैसी परिस्थितियों में सरकार ने निर्णय लिया और कश्मीर को एक केंद्र शासित
राज्य बना दिया, वो मेरे भीतर अनेकों प्रश्न और आशंकायें
उत्तपन्न कर देता है।
अनुच्छेद
370 के अनुसार कश्मीर को एक विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त था और उसके पास अपना एक
अलग झण्डा था। बाहरी व्यक्तियों को कश्मीर में ज़मीन खरीदने और कश्मीरी लड़कियों को
कश्मीर से बाहर शादी करने की आज़ादी नहीं थी। कश्मीर में ना ही भारत का संविधान और
ना ही भारतीय कानून प्रणाली लागू होती थी। अनुच्छेद 370 के लिए राजनीति और भारत की
जनता प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू पर दोषारोपण करती आयी है। जब्कि बहुत कम लोग
जानते हैं (क्यूंकी वो पूर्वागृह से ग्रसित हैं और जानना ही नहीं चाहते) कि कश्मीर
भारत का हिस्सा है भी तो पंडित नेहरू के कारण। जिस समय अनुच्छेद 370 लागू किया गया
उस समय परिस्थितियों की मांग थी और पंडित जी ने स्पष्ट भी किया था कि ये प्रक्रिया
अस्थायी है और “घिसते-घिसते एक दिन घिस जाएगी।“ कश्मीर में बाहरी लोगों के ज़मीन
खरीदने पर पाबंदी का एक बड़ा कारण प्रकृति की सुरक्षा भी रहा है। जिस समय महाराज
हरी सिंह ने ये निर्णय लिया था उस समय उन्हें डर था कि अंग्रेज़ कश्मीर के ठंडे और
सुहाने मौसम के कारण वहाँ बसने का प्रयास करेंगे। इसलिए ज़मीन की खरीद फ़रोख्त पर
पाबंदी लगाई गयी, हालांकि व्यापार पर पाबंदी नहीं थी।
देश
की आज़ादी के बाद से अब तक अनुच्छेद 370 में इतने बदलाव हुए हैं कि वो नाम के बराबर
ही कश्मीर में रह गया था। घिस-घिस के ख़त्म ही हो रहा था। पहले भी दो बार अनुच्छेद
370 को हटाने का प्रयास हुआ था जो सफल नहीं हो पाया और पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमति
इन्दिरा गांधी जी के पश्चात कोई भी सरकार इतनी अधिक दल बल के साथ शासन में नहीं आई
कि 370 पर मेजॉरिटी के साथ क्रियांवन कर सके। भाजपा सरकार ने अलगाववादी नेता
महबूबा मुफ़्ती के साथ गठबंधन सरकार को गिरा कर पहले ही वहाँ गवर्नर शासन लागू कर
चुकी थी। उसके बाद बेहद गोपनियता से कश्मीर में बड़ी मात्रा में फौज इकट्ठी की गयी, टेलीफोन, मोबाइल,
इन्टरनेट और संचार के सभी साधन बंद किए गए, अलगाववादी नेताओं को नज़रबंद किया गया, धारा 144 लागू की और अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए
बिल सीधे राज्य सभा में पेश किया गया और पास कर लिया गया। केंद्र सरकार का कहना है
अब कश्मीर से आतंक ख़त्म हो जाएगा। कश्मीर का विकास होगा, नए आयाम बनेंगे।
हम
भी यही चाहते हैं कि कश्मीर की वादी फिर से चहक उठे। कश्मीरियों को उनका हक़ मिले।
सरकारी नौकरियों में संभावनाएं बढ़ें, रोजगार बढ़े, उन्नति हो और सबसे ऊपर कश्मीर आतंक मुक्त हो। पर इस
सब में समय लगेगा और बहुत समय लगेगा। जब किसी निर्णय की सफलता और असफलता समय पर
निर्भर हो और ऐसे में उस निर्णय से प्रभावित लोगों का मत ही ना पता हो या उनकी
मर्ज़ी इस निर्णय में शामिल ना हो तो स्थितियाँ संभालना मुश्किल हो सकता है। कश्मीर
पर आए फैसले में सारा भारत प्रसन्न है सिवाए कश्मीरियों के। उनकी शिकायत है कि
उनके साथ धोका हुआ है। ना तो उनसे पूछा गया ना ही उन्हें बताया गया और बस उन पर
ज़ोर ज़बरदस्ती और डर के सहारे से ये निर्णय थोप दिया गया। सबसे बड़ा सवाल यहाँ ये है
कि कश्मीर को विशेष राज्य से राज्य का दर्जा भी ना दे कर केंद्र शासित राज्य क्यूँ
बनाया गया। इसके पीछे भाजपा ने अपनी कोई राजनीतिक मंशा पूरी करने का प्रयास किया
है।
जहां
बाकी भारत में कश्मीर से भागे हुए कश्मीरी पंडित खुश हुए और जश्न मनाया (हालांकि
उनके पुनर्स्थापन अभी तक कोई चर्चा नहीं हुई है) वहीं कश्मीर में अब भी हजारों की
तादात में पंडित और सिक्ख भी रहते हैं जो सरकार के इस निर्णय से प्रसन्न नहीं हैं
और इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर चुके हैं। उनका सबसे बड़ा डर है कि
अब बाहरी लोग कश्मीर की ज़मीन हड़पने पहुँच जाएंगे और वादी पर ना केवल बोझ बढ़ेगा
बल्कि प्रदूषण भी बढ़ेगा और केंद्र शासित राज्य होने के नाते अब पूरी तरह से कश्मीर
केंद्र सरकार के नियंत्रण में रहेगा। कर्फ़्यू खुलने के बाद से वहाँ विरोध प्रदर्शन
भी चल रहा है।
मुझे
समझ नहीं आया कि सरकार ने ये निर्णय इस प्रकार क्यूँ लिया? कश्मीर और कश्मीरियों पर ये निर्णय इस तरह क्यूँ थोपा
गया? कश्मीर में आम चुनाव करा कर, वहाँ के लोगों को अपने विश्वास में ले कर उन्हें बता
कर भी ये निर्णय सरकार ले सकती थी। दूसरी बात,
विशेष राज्य से सीधे केंद्र शासित राज्य बना देना भी मेरे जैसे व्यक्ति के लिए
समझना मुश्किल है। हालांकि कश्मीर के चलते लद्दाख को फायदा हुआ है और लद्दाख के
लोग उसे कश्मीर से अलग किए जाने और केंद्र शासित राज्य बना देने पर प्रसन्न भी
हैं।
पर
इस सब के बीच जो सबसे अनुचित बात है, वो है लोगों और खासतौर से भाजपा नेताओं की
घ्रणित प्रतिक्रियायें। जैसे ही सरकार ने 370 हटा कर कश्मीर को केंद्र शासित राज्य
बना देने का निर्णय सार्वजनिक किया लोगों ने इस गंभीर विषय का परिहास बना डाला। भारत
की अधिकतर जनता के लिए अनुच्छेद 370 मात्र कश्मीर में ज़मीन खरीदने और कश्मीरी लड़की
से विवाह करने तक सीमित है। भद्दे भाषण, भद्दी टिप्पणियों से ना केवल भाजपा नेताओं
ने अति कर रखी है बल्कि पूरा सोशल मीडिया इस गंदगी से भरा पड़ा है। ये हमारे समाज की
गिरि हुई सोच है कि कश्मीरी बेटी उन्हें बेटी नहीं लगती। हवस के दरिंदे उन्हें नोचने
के लिए तैयार बैठे हैं।
भारतीय
मीडिया कश्मीर के सही हालात नहीं दिखा रही। इंटेलिजेंस प्रमुख अजीत डोभाल वहाँ जा कर
कुछ लोगों के बीच खाना खाते हुए अपनी तस्वीर खिंचवा कर ऐसा संदेश देने का प्रयास कर
रहे हैं कि वहाँ सब शांत है और कश्मीरी खुश हैं। हालांकि मेरी राय भी यही है कि सरकार
का निर्णय सही है बस उनका तरीका गलत है और कश्मीर का केंद्र शासित राज्य बना दिये जाने
के समर्थन में भी मैं नहीं हूँ। अब ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हमारी जन्नत में सब
कुछ ठीक रहे, शांत रहे और जैसा कि सरकार का कहना है आतंक
ख़त्म हो, विकास हो।
Good and correct analysis
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंयह लेख ग्यारह अगस्त को अनुच्छेद 370 के समापन के पांच दिन बाद लिखा गया था जबकि आज नौ नवंबर है । और कश्मीर में कुछ नहीं बदला है । विस्थापित कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास यदि सचमुच कर दिया जाए तो मैं भी मान लूं कि केंद्रीय सरकार कश्मीर में वास्तव में ही कुछ सही कर रही है । अब तक तो ऐसा कोई संकेत मिला नहीं है । जिस ढंग से यह काम किया गया था (पांच और छह अगस्त को), वह संवैधानिक प्रक्रियाओं का खुला मखौल था पर जब जनता आंख मूंदकर सत्तारूढ़ दल और उसके नेता को चुनावी समर्थन दे रही हो तो काहे का संविधान ? जो मोदी-शाह कहें और करें, वही सही । कश्मीर की आग अगर ठंडी हो गई होती तो सेंसरशिप की ज़रूरत ही नहीं होती । आज अयोध्या मामले का निर्णय आ गया है (वही निर्णय आया है जो अपेक्षित था) । अब देश का कोई और हिस्सा न सुलग उठे । देशवासियों को (सभी वर्गों तथा समुदायों को) बहुत संयम रखने की आवश्यकता है क्योंकि जो बिगड़ता है, आम नागरिकों का ही बिगड़ता है । नेताओं को हमारे जीने-मरने से क्या फ़र्क पड़ता है ?
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