शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

क्या परवरिश में ही कमी है?


इस विषय पर लगभग 6 महीने पहले मैंने एक लिख लिखने का प्रयास किया था पर फिर उसे प्रकाशित नहीं किया। क्यूंकी मैं अपनी बात को ठीक से सही और सटीक शब्दों में लिख नहीं पायी थी। पर हाल ही में हुए हार्दिक पाण्ड्या विवाद ने मुझे इसे दोबारा लिखने के लिए प्रेरित किया।

क्रिकेट हमारे लिए भगवान है और क्रिकेटर हमारे लिए देवता। हम क्रिकेट और क्रिकेटरों की पूजा करते हैं। बात सिर्फ क्रिकेट की नहीं, कोई भी बड़ी हस्ती हो चाहे खेल दुनिया की हो, चाहे कोई फिल्मी सितारा, चाहे कोई राजनीतिज्ञ हो या फिर कोई महान लेखक। हम समाज में उनके द्वारा निभाए गए किरदारों से इतने प्रभावित रहते हैं कि उन्हें समाज में बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त हो जाता है और फिर हमें उनके चारित्रिक दोषों से कोई मतलब नहीं रहता। जिसके परिणाम स्वरूप वो इतने उच्च्श्रंखल हो जाते हैं कि उन्हें दुनिया और उसमें रहने वाले हम लोग कीड़े-मकौड़ों की तरह दिखने लगते हैं।

हाल ही में कॉफी विद कारण के एक एपिसोड में हार्दिक पाण्ड्या और के.एल.राहुल ने अपने चरित्र की इस उच्चश्रंखलता या कहना चाहिए अभिमान और असभ्यता का परिचय दिया। महिलाओं के प्रति हार्दिक पाण्ड्या के विचार और सोच ये प्रदर्शित करती है कि स्त्री उनके लिए मात्र एक उपभोग की वस्तु है, जिसका अपना तो कोई अस्तित्व है ही नहीं। उनका क्रिकेटर होना और उनका पुरुष होना ही उनके लिए टेलेंट की बात है जिसे वो स्त्रियों का भोग करने में उपयोग करते हैं और उनके इस टेलेंट से उनके माता-पिता भी प्रभावित रहते हैं और उनका उत्साहवर्धन करते हैं।

हार्दिक ने जिस प्रकार उंगली उठा-उठा कर उदहारण दिये कि वे लड़कियों को किसी क्लब या पार्टी में अंकित करते हुए अपने पिता के समक्ष अपने टेलेंट का प्रदर्शन करते हैं, उससे ये स्पष्ट होता है कि उनकी मानसिकता को यहाँ तक पहुंचाने में उनके माता-पिता और उनकी परवरिश का बड़ा हांथ है। सिर्फ इतना ही नहीं हार्दिक के पिता जब उनके बचाव में सामने आए तो उन्होने हार्दिक के इस व्यवहार और घृणित सोच को मनोरंजन का नाम दिया।

ज़ाहिर सी बात है कि भारत में बेटों की परवरिश वैसे नहीं होती जैसे बेटियों की होती है। माना कि बदलते परिवेश के साथ-साथ बेटियों की परवरिश में भी परिवर्तन आया है। उन्हें भी वो स्वतन्त्रता, सुविधाएं और शिक्षा प्राप्त कराई जाती है जो बेटों को मिलती है। पर बेटों को बड़ा करने के तरीके में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। बचपन से ही बेटों को क्यू बेटियों की तरह सबका सम्मान करना सिखाया नहीं जाता। केवल बड़ों के पैर छूना ही तो सब कुछ नहीं होता। हमेशा माँ-बहन का उदहारण देना क्यूँ ज़रूरी है? क्या केवल स्त्री शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक स्त्री को सम्मान देना और उसे अधिक नहीं बस इंसान समझना ही क्यूँ नहीं सिखाया जाता? स्त्री अब भी लोगों के मस्तिष्क में मांस का लोथड़ा ही क्यूँ है? जिस प्रकार बेटी के बड़े होते ही उसे संसार में अच्छे-बुरे का पाठ पढ़ाया जाता है, मर्यादा का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है उसी प्रकार बेटों को क्यूँ नहीं सिखाया जाता? हम बेटों की परवरिश के प्रति इतने ढीले और आलसी क्यूँ हैं? हार्दिक के पिता ने जिस प्रकार अपने बेटे का बचाव किया उससे ये स्पष्ट है कि वो स्वयं भी इसी मानसिकता के शिकार हैं और अपनी पत्नी को भी संभवतः उचित सम्मान उन्होने कभी ना दिया हो।

हार्दिक ने अपने वक्तव्य से ना केवल अपने चरित्र का दोष दर्शाया, अपनी घ्रणित मानसिकता का प्रदर्शन किया बल्कि अपने परिवार, अपने सह खिलाड़ियों और चीयर लीडर्स तक को अपमानित किया। किसी युवती या महिला से उनके कैसे और क्या संबंध रहें ये उनका और उस महिला का निजी निर्णय रहा होगा। उसका इस तरह भद्दा प्रदर्शन और पूरे क्रिकेट संसार का अपमान कहाँ तक उचित है? के.एल.राहुल और करण जौहर इस सब में बराबर के दोषी हैं जो हार्दिक की इन सारी बातों पर खिलखिला कर हँसते रहें। इस प्रकार वो कुछ ना कह कर भी अपना पूर्ण समर्थन हार्दिक को दे रहे थे।

इन्टरनेट पर किसी पत्रिका का लेख था कि जो हार्दिक ने कहा वो यदि किसी महिला ने नेशनल टीवी पर कहा होता तो हम उसे आंदोलनकारी मानते। उसकी प्रशंसा करते। हार्दिक की आलोचना मात्र इसलिए हो रही है क्यूंकी वो एक पुरुष हैं। लिखने वाले ने लिख दिया। पर क्या ये सही है? इस प्रकार की तुलनात्मक प्रतिक्रिया कहाँ तक उचित है। सत्य तो ये है कि यदि किसी महिला ने इस प्रकार नेशनल टीवी पर या खुले आम अपना सो कॉल्ड टेलेंट प्रदर्शित किया होता तो उसे आंदोलनकारी नहीं अपितु चरित्रहीन कहा जाता। डिबेट्स पर डिबेट्स चल रहे होते। ना जाने कौन-कौन सी सेनाएँ उसके घर के बाहर पत्थर फेंक रही होती और उसके नाम के फतवे निकल गए होते। कोई सिर काट लाने के लिए इनाम घोषित कर देता तो कोई भारत से ही बहिष्कृत किए जाने की मांग उठा रहा होता। इससे भी भयंकर है कि उसे हर जगह से बलात्कार की धमकियाँ मिलती और उसे हर सोशल प्लैटफ़ार्म पर असभ्य गंदी बातों से अपमानित किया जा रहा होता। पर पाण्ड्या और राहुल तो पुरुष हैं। तो उनके साथ ऐसा कौन और क्यूँ करेगा। इस तरह की वीभत्स सोच रखना तो पुरुषों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। ऐसे में उन्होने अपने जीवन की कुछ झलकियाँ दे दीं और महिलाओं के प्रति अपनी सुंदर सोच का प्रदर्शन कर दिया तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी?

हार्दिक और के.एल.राहुल को अगली सुनवाई तक सस्पेंड किया गया है। उन्हें यकीनन दंड मिलना चाहिए। अब क्रिकेट एसोसियशन उन्हें क्या और कितना दंड सुनाती है ये भविष्य बताएगा। पर दंड का अर्थ ही क्या है यदि उन्हें अपनी भूल का एहसास ही ना हो। आवश्यक है कि उन्हें उचित पाठ पढ़ाया जाए जिससे वो अपनी घटिया मानसिकता से उबर सकें और स्त्रियों के प्रति अपने विचार बदल सकें।

कल ही मैंने पढ़ा कि दादा (सौरभ गांगुली) का वक्तव्य आया है। उन्होने कहा कि जो हुआ वो हुआ पर अब हमें आगे बढ़ना चाहिए। मुझे ठीक से बात समझ नहीं आयी। क्या वो पाण्ड्या और राहुल के लिए क्षमा की अपेक्षा कर रहे हैं। सौरभ गांगुली मेरे प्रिय क्रिकेटरों में से एक हैं। जिस समय लोग सचिन के दीवाने हुआ करते थे मुझे सौरभ गांगुली और राहुल द्रविड़ के खेल के प्रति आकर्षण था। पर आज दादा की ये बात मुझे चोट पहुंचा गयी। हम यूं ही आगे बढ़ते रहते हैं। स्त्रियों पर अत्याचार, शोषण आदि होता ही रहता है और हम आगे ही तो बढ़ते रहते हैं। 


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शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

10 परसेंट का लौलीपौप


आरक्षण ले लो! आरक्षण ले लो! टके के भाव आरक्षण ले लो!
चुनाव आ गया है और मोदी जी ने अपनी दुकान खोल ली है। मत दाताओं को लुभाने के लिए ऑफर के एनाउंसमेंट भी शुरू कर दिये है। सत्ता में आने से पहले किए गए हर वादे को धूल चटाते हुए पहले से ही विभाजित देश को और विभाजित कर दिया है। वो अंग्रेजों की पॉलिसी थी ना “Divide and Rule”, बस वैसा ही कुछ। पहले हिन्दू-मुसलमान बांटा पर पेंतरा वैसा नहीं चला जैसा उम्मीद होगी। दलित कार्ड की आढ़ में जातिगत विभाजन को और हवा दी। अब संवर्णों को 10% आरक्षण की लौलीपौप थमा कर उन्हें भी आपस में विभाजित कर दिया।

भाजपा जिन-जिन वादों के दम पर सत्ता में आई थी सारे मुंह उल्टा किए पड़े हैं और सत्ता सरकार के पैरों तले कुचले जा चुके हैं। जातिगत आरक्षण ख़त्म कर के आर्थिक आधार पर आरक्षण देंगे। सब फुस्स हो गया। जातिगत आरक्षण ज्यों का त्यों और संवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण की चम्मच चटा दी। वाह मोदी जी वाह। भाई दे दो। सबको आरक्षण ही दे दो। पर पहले नौकरियाँ तो बढ़ा दो। रोज़गार का टोटा पड़ा है और हमको 10 प्रतिशत की लौ लगाई जा रही है। उस पर भी कमाल की गणित देखिये। अगर आपकी सालाना कमाई 2.5 लाख या उससे अधिक है तो आप टैक्स के घेरे में आते हैं पर यदि आपकी सालाना कमाई 8 लाख तक भी है तो भी आप उस दस प्रतिशत आरक्षण के हकदार हैं। ये कैसी इकनॉमिक व्यवस्था है। कोई जानकार व्यक्ति हो तो मुझे समझाये। मेरी समझ इस मामले में न्यून है।

बाबा साहिब ने जब अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की थी तो वो मात्र 10 वर्ष के लिए था। पर एक बार चुनावी मुद्दा बनने के बाद इस सिस्टम को बदला नहीं गया। माना कि पिछली सरकारों का भी दोष है पर आप क्या कर रहे हैं? आपने कौन सा कारनामा कर दिखाया जो आप पिछली सरकार से बेहतर साबित हो सके। एक समय था जब कुछ जाती और संप्रदाय के लोग पिछड़े थे, उनके पास सुविधाओं और साधनों की कमी थी। आज भी ऐसे कुछ प्रांत या क्षेत्र हैं जहां के निवासी जीवन की साधारण सुविधाओं जैसे शिक्षा, बिजली इत्यादि से दूर हैं और उन्हें वो कठिन परिश्रम से या तो प्राप्त हो पाती हैं या बिलकुल भी नहीं मिल पाती। इसीलिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था जिससे कि वो लोग जो अथक परिश्रम और कठिनाइयाँ उठा कर शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं उन्हें आगे बढ़ने, प्रगति करने और अपना भविष्य बनाने में उनकी सहायता की जा सके। पर एक लंबे अरसे से इस प्रावधान का दुरुपयोग होता आ रहा है।

आई.ए.एस. और पी.सी.एस. अधिकारियों के बच्चे, एम.पी. एम.एल.ए., मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाले, बड़े और ऊंचे पदों पर आसीन लोगों के बच्चे, जो भी अनुसूचित जाती-जनजाति या पिछड़े वर्ग से संबंध रखते हैं, सभी आरक्षण का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। ऐसा तो नहीं कि आरक्षित वर्ग में सभी पढ़ाई में कमजोर हैं या उनमें टेलेंट की कमी है या उनके पास साधनों का अभाव है और पर फिर भी उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है जिसके कारण असंख्य संवर्ण एवरेज छात्र अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरी की रेस हार जाते हैं। यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि एवरेज छात्र से मेरा तात्पर्य 60-80 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले वो छात्र हैं जिनमें ना तो टेलेंट की कमी है ना ही ज्ञान की, बस वो 90 प्रतिशत के रेस के प्रतिभागी नहीं हैं। पर इस आरक्षण व्यवस्था के चलते संवर्णों के लिए 90 प्रतिशत और उससे अधिक अंक ला कर शिक्षा में टॉप करने की बाध्यता बना दी गयी। अन्यथा उन्हें ना तो उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलेगा और ना ही अच्छी नौकरी का। न जाने कितने संवर्ण एवरेज छात्र या तो बेरोजगार घूमते मिल जाएंगे या उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी की नौकरी करते हुए। क्या सभी संवर्ण आर्थिक रूप से समर्थ होते हैं और किसी भी संवर्ण के पास साधनों का अभाव नहीं है?

संवर्णों ने कभी आरक्षण नहीं मांगा। ये आरक्षण उन संवर्णों का अपमान है जो वर्षों से इस व्यवस्था के चलते नुकसान उठाते हुए भी अपनी प्रतिभा और दृढ़ निश्चय के बल पर अपना जीवन किसी ना किसी प्रकार संवार ही लेते हैं। देख रही हूँ इस घोषणा के बाद से वो लोग भी आरक्षण के पक्ष में हो गए हैं और इसे संवैधानिक बता रहे हैं जो अब तक ज़ोर-ज़ोर से जातिगत आरक्षण के विरुद्ध चिल्लाते थे। मुझे तो डर लगता है कि किसी दिन खेल-कूद या कला क्षेत्र या हर वो क्षेत्र जहां मात्र प्रतिभा और प्रतिभा ही सब कुछ है, वहाँ भी यदि आरक्षण ठूंस दिया गया तो हमें खिलाड़ी, लेखक, फिल्म स्टार्स, नर्तक, गायक और पता नहीं क्या-क्या सच्ची प्रतिभा से नहीं बल्कि आरक्षण के परिणाम स्वरूप प्राप्त होंगे और हमें उन्हें स्वीकारना होगा।  

पता नहीं क्यूँ भाजपा सरकार को लगता है कि हमारे माथों पर बड़े अक्षरों में लिखा है “सल्फेट”। पूरा शब्द नहीं लिखूँगी, मेरी भाषा की मर्यादा मैं भंग नहीं कर सकती। पर हाँ! मैं वाकई क्रोधित हूँ और क्रोध में अपशब्द ना सिर्फ मन में आते हैं बल्कि ज़बान पर भी। अब सोचना हमको ही है। क्या हम सचमुच सल्फेट हैं?     

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शुक्रवार, 4 जनवरी 2019

सबरीमाला और कुछ नहीं, स्त्री अपमान की एक और गाथा है


ये कैसा मंदिर है? ये कैसा ईश्वर है? ये कैसा स्थान है? जहां पूजा/प्रार्थना के लिए भी पुरुष और स्त्री का भेद है। सबरीमाला विवाद और कुछ नहीं बस स्त्री को अपमानित करने का एक और प्रयास है। किसी न किसी प्रकार पुरुष समाज अपना वर्चस्व स्थापित किए रहना चाहता है। आज जहां समाज में हर प्रकार की प्रगति हो रही है, स्त्रियॉं और पुरुषों के कार्यक्षेत्र भी समानता के स्तर पर हैं, वहाँ ईश्वर के एक रूप और उनके मंदिर में 50 की आयु से कम उम्र की स्त्रियॉं का मात्र इलसिए प्रवेश वर्जित है क्यूंकी वो प्रत्येक माह माहवारी के दौरान रक्तस्राव से पीड़ित होती हैं। इसलिए वे अशुद्ध हैं। पुरुष चाहे एक सहस्त्र ही कुकर्म क्यूँ न कर चुका हो फिर भी वो भगवान अयप्पन के दरबार में माथा टेक सकता है। सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के लिए एक लंबे समय से स्त्रियाँ आंदोलन कर रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय भी महिलाओं के पक्ष में निर्णय दे चुका है। फिर भी ये संभव नहीं हो पा रहा। हाल ही में लगभग 40-50 वर्ष के बीच की दो महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश किया और परिणाम ये हुआ कि मंदिर को शुद्धिकरण के लिए बंद कर दिया गया। उसके बाद विवाद गहराया। उस विवाद को कवर करने वाली एक मुस्लिम महिला पत्रकार के साथ वहाँ के शरद्धालुओं ने असभ्यता की। उसे लगातार गालियाँ दी। उसकी पीठ पर लात मारी और उसे उसका काम करने से रोकते रहे। वो फिर भी अडिग रही और अपना काम करती रही। ये उसके पूरे केरियर का सबसे मुश्किल और पीड़ादायक अवसर था।

कमाल की बात है ना, संसार का आरंभ जगत जननी माता आदि शक्ति से हुआ। तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश माता आदि शक्ति के ही अंश है। माता आदि शक्ति ने तीनों को उनकी अपनी शक्तियाँ सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती प्रदान की। हर देव के पास स्त्री रूप में उसकी शक्ति है और उस शक्ति के बिना वो देव भी अधूरा है। फिर भगवान अयप्पन जो महादेव और श्री हरी विष्णु के स्त्री अवतार मोहिनी के अंश हैं और जिनकी अपनी दो पत्नियाँ थीं, उन्हें सबरीमाला के मंदिर में स्त्रियाँ ही पूज नहीं सकतीं। क्यूँ?

मैं 12 वर्ष की थी जब मैंने माहवारी को जाना था। अचानक से हुए उस रक्त्स्त्राव और उदर पीड़ा को समझना और सहन करना उस आयु में बहुत कठिन था। मुझे इससे पहले तक इस विषय का कोई ज्ञान नहीं था। फिर मेरी माँ ने मुझे उस प्रक्रिया से सामंजस्य बिठाना सिखाया और धीरे-धीरे बहुत सारी बातें समझाईं कि कैसे ये प्रत्येक कन्या के लिए जीवन की अति आवश्यक प्रक्रिया है। जिससे उसे हर माह दो-चार होना पड़ता है। कन्या से स्त्री और स्त्री से माँ बनने की तरफ ये उसका पहला कदम होता है। फिर ये बतया कि अचार नहीं खाना, अचार छूना भी नहीं। दौड़ना नहीं, कूदना नहीं, वगैहरा-वगैहरा। एक माह माहवारी के ही एक दिवस मन बहुत विचलित था, उस वक़्त मूड स्विंग्स जैसे शब्द का भी ज्ञान नहीं था। मासूमियत में मैंने अपने घर के पूजा स्थान से दुर्गा शप्तशती की पुस्तक उठा कर पढ़ना शुरू कर दिया। जबकि इससे पहले मैंने कभी इस कठिन पुस्तक को हांथ भी नहीं लगाया था ना ही मैं इस आयु में पूजा का भाव समझती थी। बस अपने बाबा जी (दादा जी) को प्रातिदिन दुर्गा शप्त्शती का पाठ करते हुए देखा-सुना था। मैंने ऐसा क्यूँ किया मुझे नहीं पता, बस किया। उस दिन पता चला का कि माहवारी के दौरान पूजा-पाठ नहीं करते, मंदिर नहीं जाते यहाँ तक कि मुंह से किसी भगवान का नाम भी नहीं लेते। हालांकि मुझे डांट नहीं पड़ी पर मुझे ये सब मेरी माँ ने समझाया। मैंने पलट के नहीं पूछा कि ऐसा क्यूँ? तब से माँ की ये सारी सीखें मेरे अंदर स्थापित हो चुकी हैं और मैं आज तक उनका पालन करती हूँ। ये बात और है कि आज मुझे हर बात का ज्ञान है। मैं माहवारी से जुड़े विज्ञान को भी समझती हूँ और मेरी माँ ने जो मुझे समझाया उसके पीछे के कारण को भी।

अब मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि मेरी माँ की हर सीख के पीछे एक तार्किक कारण था ना कि रूढ़िवादी। उन्होने मुझे अचार छूने से इसलिए मना किया कि फिर मेरा मन उसे खाने को ललचाएगा और खाने के लिए इसलिए मना किया क्यूंकी अक्सर कन्याओं को माहवारी के समय खटाई नुकसान कर जाती है। हालांकि ये सब पर लागू नहीं होता किसी-किसी पर होता है। मुझे भागने-दौड़ने, खेलने-कूदने के लिए इसलिए रोका गया क्यूंकी मैं उस दौरान शरीर में खून की कमी से पीड़ित थी और मुझे माहवारी के समय असहनीय उदर पीड़ा से गुज़रना पड़ता था। हर सीख के पीछे मेरा ही भला था। पुरातन काल से स्त्रियों को माहवारी के समय अलग-थलग कर दिया जाता था, रसोई और काम-काज से दूर। उसके पीछे एक कारण ये था कि ये समय उन्हें सब चीजों से विलग विश्राम करने का अवसर मिलता था। पर इसको एक दुष्प्रथा में बदल कर स्त्रियों को दूषित या अशुद्ध मान लिया गया। टीवी के विज्ञापनों पर मत जाइए। यकीन मानिए हर स्त्री को उसके माहवारी के दिनों में आराम और शांति की आवश्यकता होती है। फिर चाहे वो स्त्री साधारण घरेलू, कामकाजी, पायलट, खिलाड़ी, मजदूर, या फिर पुलिस और सेना में ही क्यूँ ना हो। अब सभी अपने-अपने कार्यक्षेत्र पर डटी रहती हैं और सभी उत्तरदायित्व उसी प्रकार पूर्ण करती हैं जिस प्रकार वो माह के अन्य दिनों में करती हैं। 

अब बात पूजा-पाठ और मंदिर जाने के बारे में। मेरी माँ ने मुझे इस सब से रोका तो ये नहीं बताया कि ऐसा उन्होने क्यूँ किया, बस इतना कहाँ ऐसे में अच्छा नहीं लगता। उनकी ये बात बिलकुल सही है। माहवारी के दौरान स्त्री को स्वयं ही कुछ अच्छा नहीं लगता। जिसे समाज अशुद्धता का नाम देता है असल में वो असहजता है जो रोज़ मर्रा के काम करने में भी होने लगती है। पढ़ने-लिखने की इक्षा नहीं होती, कुछ काम करने का मन नहीं होता। जहां बैठे हो वहाँ से घंटो उठने का मन नहीं करता। यहाँ तक कि कई बार किसी से बात भी करने की इक्षा नहीं होती (ये सारे लक्षण साधारण और समान्यतः होते हैं पर हर लड़की के लिए अलग-अलग भी हो सकती हैं, सब पर एक समान लागू नहीं होती)। जी हाँ! मैं भी माहवारी के समय पूजा नहीं करती और मंदिर नहीं जाती। इसलिए नहीं कि मैं अशुद्ध हूँ बल्कि इसलिए क्यूंकी मैं असहज होती हूँ। सिर्फ मंदिर ही क्या यदि प्रत्येक स्त्री को उसकी माहवारी के दौरान उसके नियत उत्तरदायित्वों से अवकाश प्राप्त हो तो वो प्रसन्नता से इसे स्वीकार करेगी। लेकिन चूंकि आज के भाग-दौड़ और मुक़ाबले के इस युग में ये संभव नहीं तो स्त्री शरीर और मस्तिष्क से इतनी दुर्बल भी नहीं कि अपने उत्तरदायित्व ना निभा सके।

विज्ञान ने माहवारी के प्रति इतनी समझ समाज में बांटी है और स्वयं माता आदि शक्ति की संतान होने के बाद भी हमने ऐसी कुरीतियों को बढ़ावा दे रखा है। असल में सबरीमाला और अन्य देव स्थान जहां स्त्रियों का प्रवेश वर्जित किया गया है उसका कारण स्त्री की शारीरिक अशुद्धता या शुद्धता नहीं है बल्कि पुरुष और समाज का दूषित मन और मानसिक विकृति है।

मेरी सोच कहती है, क्यूँ जाना उस मंदिर, दरगाह में जहां मुझे ईश्वर के उस रूप के दर्शन के लिए अपनी शुद्धता का प्रमाण देना पड़े। आखिर क्यूँ स्त्रियाँ अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही है। इसकी लेश मात्र भी आवश्यकता नहीं है। क्या मंदिर में प्रवेश मात्र से सब कुछ हासिल हो जाएगा? जो स्थान आपका बहिष्कार करे उसे स्वयं के अस्तित्व से बहिष्कृत कर दीजिये। वो मंदिर वो ईश्वर वो स्थान आपके ध्यान का केंद्र होना ही नहीं चाहिए। जिस दिन स्त्रियाँ इस संसार में अपनी स्वयं शक्ति और अहमियत का ज्ञान कर लेंगी उस दिन कहीं कोई उनका बहिष्कार नहीं कर पाएगा। कल्पना कीजिये जिस दिन लड़कियां एक जुट हो कर दहेज प्रथा के विरुद्ध खड़ी हो जाएँ और विवाह नकार दें, बहिष्कृत कर दें ऐसे समाज को जो दहेज और शान के नाम पर ताम-झाम वाले मेंहगे विवाह में यकीन रखता है, उस दिन से ये कुप्रथा समाप्त हो जाएगी। हर कुप्रथा को हम ही बढ़ावा देते हैं। किसी मंदिर या मस्जिद में जाने के लिए आप जितना लड़ेंगीं उतना इस पुरुष समाज का घमंड बढ़ेगा। बहिष्कृत कीजिये ऐसे पुरुष को जिसे लगता है कि वो स्त्री के बिना पूर्ण है, स्त्री के बिना संसार चला सकता है, स्त्री को देव स्थान से विलग कर के पूजा का फल प्राप्त कर सकता है या ईश्वर की कृपा पा सकता है। बहिष्कार कीजिये ऐसे स्थान का, ऐसे मंदिर ऐसी प्रथा का, बहिष्कार कीजिये ऐसे ईश्वर का जो अपनी शक्ति का मान ना रख सके।  

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

हिन्दी भी शान बढ़ाती है


मैं केवल हिन्दी में ही क्यूँ लिखती हूँ? इस सवाल के कई संभावित जवाब हो सकते हैं। जैसे मुझे अँग्रेजी का ज्ञान नहीं। या मेरी अँग्रेजी कमज़ोर है। हो सकता है मैंने हमेशा हिन्दी माध्यम से ही शिक्षा गृहण की हो। या फिर कुछ और भी कारण हो सकता है। मेरे पाठक या जो मुझे नहीं भी पढ़ते हैं वो किसी भी प्रकार का अनुमान लगा सकते हैं और ज़रूर लगाइए। पर आज इस लेख का उद्देश्य मेरा भाषा ज्ञान नहीं है अपितु ये समझाना है कि भाषा मात्र अपने विचारों का आदान-प्रदान करने का एक साधन है। हम बोलचाल या लेखन के लिए उसी भाषा का प्रयोग करते हैं जो हमारी और हमारे श्रोताओं या पाठकों को आसानी से समझ आए और हमारा भाव भली प्रकार से उन तक पहुँच पाये। ये ही करना भी चाहिए।

फिर भी बताती हूँ, कि मैंने अँग्रेजी और हिन्दी दोनो ही माध्यमों के द्वारा अपनी शिक्षा पूर्ण की है। कुछ लोगों को ये जान कर अचंभा हो सकता है कि दसवीं मैंने उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद के आधीन पूरी की वो भी अँग्रेजी माध्यम। बारहवीं कक्षा में मेरा बोर्ड बदल कर सी.बी.एस.सी. हो गया और यहाँ हिन्दी एक वैकल्पिक विषय के रूप में था। कमाल की बात ये थी कि पूरी कक्षा में केवल मैं थी जिसने हिन्दी को अपनाया और बाकी सहपाठियों ने फिजिकल एजुकेशन को। दुर्भाग्यवश बोर्ड के फॉर्म में सबके साथ मेरा भी विषय हिन्दी से बदल कर फिजिकल एजुकेशन हो गया और पूरा साल हिन्दी पढ़ने के बाद भी मुझे उसकी परीक्षा देने का अवसर नहीं मिला। स्नातक, स्नाकोत्तर और विधि उपाधियों की पढ़ाई मैंने हिन्दी माध्यम से की। स्नातक स्तर पर मैंने अँग्रेजी और हिन्दी साहित्य को अपना विषय चुना था और कभी कल्पना भी नहीं की थी कि स्नाकोत्तर उपाधि मैं हिन्दी साहित्य में प्राप्त करूंगी।

हिन्दी, अँग्रेजी दोनों ही मेरे प्रिय विषय रहे हैं। स्कूल, कॉलेज में जब तक दोनों ही विषयों के शिक्षा चली गद्य और पद्य की व्याख्याओं को मैं सदा महसूस कर के लिखा करती थी और कई बार मेरे शिक्षकों से मुझे उन व्याख्याओं के लिए प्रशंसा मिली। अब तक मुझे हिन्दी से प्रेम हो चुका था। हाँ! ये सही है कि मेरा अँग्रेजी का शब्दकोश उस स्तर का नहीं जिस स्तर से मैं हिन्दी से परिचित हूँ। मुझे इस बात को मानने में कोई शर्म नहीं। मेरे लिए अँग्रेजी का प्रयोग और ज्ञान ज़रूरत भर का है। जो और जहां हिन्दी ना समझी जाती हो या जहां मात्र अँग्रेजी में ही कार्य किया जाता हो वहाँ के लिए मेरे पास सक्षम अँग्रेजी ज्ञान है।

मैं यहा ये बिलकुल नहीं कहना चाहती कि भारतियों के लिए हिन्दी बोलना और लिखना ज़रूरी होना चाहिए। नहीं, ऐसा सही नहीं है। क्यूंकी भारत में कुछ ही राज्य है जो हिन्दी भाषी हैं और हम सब जानते हैं कि भारत विभिन्न भाषाओं का देश है। अहिंदी भाषी राज्यों या क्षेत्रों पर हिन्दी थोपना कतई सही नहीं होगा। काफ़ी बड़ी तादात में जनता ये समझती है कि हिन्दी हमारी मात्रभाषा है। । जबकि ऐसा है नहीं। कभी भाषा के इतिहास पर खोज कीजिये तो इस बात का भी उत्तर मिलेगा। ये एक विस्तृत विषय है। इस पर चर्चा फिर कभी और। भारत के संविधान में भी हिन्दी और अँग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में पहचान प्राप्त है और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी वर्णन है। यानी हिन्दी और अँग्रेजी दोनों ही भारत की ओफिशियल भाषाएँ हैं।

आज सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से हर व्यक्ति अपने जीवन, अपने विचार और बहुत कुछ दुनिया से साझा कर रहा है। पता नहीं हमें ऐसा क्यूँ लगता है कि यहाँ केवल अँग्रेजी में ही लिखा जा सकता है या लिखना चाहिए। या फिर हमने यदि अँग्रेजी में नहीं लिखा तो हमारी शान में कमी आ जाएगी। किसी भी भाषा का प्रयोग कीजिये पर स्पष्ट और त्रुटिहीन कीजिये। उसकी टांग मत तोड़िए। अर्थ का अनर्थ हो जाता है। एक समय था जब कंप्यूटर पर हिन्दी लिखने के लिए हिन्दी की टाइपिंग सीखना आवश्यक होता था। पर तकनीक के इस युग में इस समस्या का समाधान भी कर दिया है। गूगल प्ले स्टोर से गूगल टूल्स डाउनलोड कीजिये और अपना फॉन्ट चुनिये। अब वो चाहे हिन्दी हो या कोई और भाषा। ऐसी कई एप्स मौजूद हैं जिनके द्वारा हम हिंगलिश में टाइप करते हुए उसे हिन्दी में बदल सकते हैं। फिर क्या समस्या है। पूरी शान से हिन्दी का प्रयोग कीजिये। अपनी बात और अपने विचारों को बिना हिचकिचाये पूरी शिद्दत से लिख डालिए।

ना अँग्रेजी बड़ी है ना हिन्दी छोटी और हिन्दी भाषी राज्यों के सभी माता-पिताओं से मेरा आग्रह है कि जितना आप अपने बच्चों को अँग्रेजी पढ़ने और सीखने के लिए प्रेरित करते हैं उतना उन्हें स्पष्ट और साफ़ हिन्दी बोलने और लिखने के लिए भी प्रेरित करें। कहीं ना कहीं हिन्दी हमारी पहचान है। अँग्रेजी अवश्य ही ज़रूरी है पर हिन्दी को दरकिनार करना उचित नहीं। हिन्दी हमारी शान नहीं घटाती और अँग्रेजी कोई स्टेटस सिंबल नहीं है। आवश्यक है तो भाषा की मर्यादा बनाए रखना। जिस भी भाषा का प्रयोग करें उसे सम्मान दें और उसका सम्मान बनाए रखें।


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अनुच्छेद 370 पर सरकार का ऐतिहासिक निर्णय- मेरे विचार

आवश्यक नहीं कि हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी ही जाए और कुछ लिखा-बोला ही जाए। पर बात जब कश्मीर कि आती है तो भारत का बच्चा-बच्चा बोलता है और ...